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4451 | ने अनुसरण किया है इस विषय में पं. हीरालालजी का मत है कि सोमदेव सूरि ने श्वेताम्बर ग्रंथ पउमचरिउ का | अनुसरण किया है। अभिषेक के समय चार कोणों पर कलश स्थापन किये जाते हैं उनमें चार समुद्रों की कल्पना
की गई है। देव आगे के घृतवर समुद्र का जल लेकर भी अभिषेक किया है इस अभिप्राय से पाँच समुद्रों के पंचामृत से अभिषेक की परिकल्पना की गई हो। परंतु इन समुद्र का जल भी घी दूध नहीं जल ही है। पं. आशाधरजी ने चल प्रतिमा की प्रतिष्ठा के समय पंचामृत अभिषेक का वर्णन किया है जो प्रतिष्ठा के समय धातु या पाषाण की शुद्धि के लिये योग्य है किन्तु जिन प्रतिमा के पंचकल्याणक हो चुके हैं उन प्रतिमा के अभिषेक का प्रसंग ही नहीं आता है। सुमेरु पर्वत और पाण्डुक शिला की कल्पना कर जन्माभिषेक तो उचित ही नहीं है जलाभिषेक भी जन्माभिषेक की परिकल्पना से उचित नहीं है। इस प्रसंग पर पं. हीरालालजी का मानना है कि वायु से उड़कर प्रतिमा पर लगे रज कणों के प्रक्षालनार्थ जल से अभिषेक करना उचित है। यहाँ विचारणीय है कि अकृत्रिम जिनालयों में इन्द्र देवादि अभिषेक करते हैं। वहाँ रजकण कहाँ से आते हैं सौधर्म इन्द्र विदेह क्षेत्र के वैभव सहित
साक्षात् जिनेन्द्र भगवान को छोड़कर नंदीश्वर द्वीप के अकृत्रिम जिनालयों में अभिषेक करने आते हैं। वहाँ ! भगवान के सामीप्य को प्राप्त कर पुण्य संचय करते हैं यशस्तिलक चम्पू में अपने पुण्य संचय के लिये अभिषेक | करने का उल्लेख है। जिन अभिषेक का कुछ वर्णन यहाँ किया जा रहा है- अभिषेक की प्रतिज्ञा करके भगवान । को पूर्वमुख विराजमान कर स्वयं उत्तरमुख करके खड़े होना चाहिए। पुण्य संचय, आत्मशुद्धि के भाव से पाप रूपी | मैल के प्रक्षालन के लिए भगवान के अभिषेक करने रूप भाव शुद्धि करके चार कोणों पर चार कलश स्थापित । करना चाहिए। अर्घ्य समर्पित करके जल से शुद्ध सिंहासन पर 'श्री हीं' लिखकर उस पर श्री देव (प्रतिमा) की
स्थापना करके18 शुद्ध प्रासुक जल से जिनेन्द्र भगवान का मंत्रोच्चारण पूर्वक अभिषेक करना चाहिए। यहाँ जन्माभिषेक नहीं चतुर्थाभिषेक किया जाता है, जन्माभिषेक में बालक की (तिलक काजल आदि) अन्य क्रियायें । भी करनी पड़ती हैं जो प्रतिष्ठित बिंब में संभव नहीं है। यहाँ प्रतिष्ठित जिनबिंब का अभिषेक किया जाता है जिन । अभिषेक जल को अपने मस्तक पर धारण कर अर्हन्त बिंब की पूजा करना चाहिए।
(2) पूजा- पूजा के विषय में पूज्य, पूजा, पूजक और पूजाफल इन चार बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। जिनेन्द्र भगवान पूज्य हैं। जिनेन्द्र देव की अर्चना करना पूजा है। भव्य जीव पूजक और सांसारिक अभ्युदय । एवं मोक्ष प्राप्ति पूजा का फल है। पूजा के मुख्य पांच अंग कहे गये हैं- (1) आह्वान (2) स्थापन (3) सन्निधीकरण (4) पूजन एवं (5) विसर्जन। पूजन करते समय पूज्य का आह्वान, स्थापन एवं सन्निधीकरण करके पूजा करें। पश्चात् विसर्जन एवं क्षमापन अवश्य करें। पूजा के समय खड़े होने की दिशा का ध्यान रखना आवश्यक है। भगवान का मुख पूर्व की ओर हो तो पूजक उत्तरमुख और यदि भगवान उत्तरमुख विराजमान हो तो पूजक को पूर्व मुख होकर पूजा करना चाहिए। पूजा एवं अभिषेक के दूषणों का त्याग कर देना चाहिए। बाष्प, कास से पीड़ित और श्वास, श्लेष्मा करते हुए, आलस जंभाई लेते हुए अशुद्ध देह और अशुद्ध वस्त्र से पूजन करना ये पूजन के दूषण हैं और पाद संकोचना, या फैलाना, क्रोध करना,भृकुटी चढ़ाना, दूसरे को वर्णन करना मंद या तेज स्वर या वेग से जलधारा करना अभिषेक के दूषण है इन दूषणों से रहित होकर पूजन प्रारंभ करना चाहिए। पूजन में अष्ट द्रव्य चढ़ाने का उद्देश्य ध्यान में होना चाहिए। जिससे भावविशुद्ध बनेंगे और सांसारिक सुख की बांछा नहीं रहेगी। जल चढ़ाते समय भावना भायें कि मैं कर्मरज की शांति के लिये भगवान को जल चढ़ाता हूँ। चन्दन- शारीरिक सुगंध एवं भवाताप से रहित होने को। अक्षत-अक्षयपद की प्राप्ति के लिए। पुष्पकाम विकार के विनाश के लिए दीप-मोहान्धकार के विनाश हेतु धूप-सौभाग्य की प्राप्ति के लिए एवं फल- ।
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