Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti

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Page 482
________________ PORT के असाधारण भाव - एक विश्लेषण 4371 संयुक्त उदय को क्षयोपशम कहते हैं, उसका भाव क्षायोपशमिक है। इसके अठारह भेद इसप्रकार बतलाये हैं। चार प्रकार का ज्ञान, तीन, अज्ञान, तीन प्रकार का दर्शन पांच लब्धियां एक प्रकार का सम्यक्त्व, और एक प्रकार का चारित्र तथा एक प्रकार का संयमासंयम।घाती' कर्म के क्षयोपशम से ही आत्मा में क्षायोपशमिकभाव । जागृत हुआ करते हैं। ज्ञानावरण के क्षयोपशम से चार प्रकार का ज्ञान क्षायोपशमिक होता है। तीन प्रकार के तीन ही मिथ्यादर्शन से सहचरित होने के कारण अज्ञान कहे जाते हैं अतएव वे भी क्षायोपशमिक ही हैं। तीन प्रकार का दर्शन भी दर्शनावरण क्षयोपशम से ही हुआ करता है अतएव वह भी क्षायोपशमिक ही है। यही व्यवस्था लब्धियों के सम्बन्ध में है। संयमासंयम अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से हुआ करता है यह बारह व्रत रूप होता है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के सन्दर्भ में एक शंका उत्पन्न होती है कि सम्यक्त्वमोहनीय उदित होकर भी तत्त्वार्थ श्रद्धान को नहीं रोकती है। इसका कार्याभाव दिखता है। आचार्य कहते हैं ऐसा नहीं है क्योंकि क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी के सम्यक्त्व प्रकृति उदित होकर श्रद्धान में चल, मल व अगाढ़ रूप दोषों को उत्पन्न करती ही है। अतः सम्यक्त्व प्रकृति का कार्याभाव नहीं है। जब दोष उत्पन्न होते हैं तो यथार्थ श्रद्धान अन्तर । है? नहीं तीनों सम्यग्दर्शनों के यथार्थ के प्रति समानता पाई जाती है। 2 अन्य क्षायोपशमिक भावों के उदयकाल में किंञ्चित् शिथिलपना तो पाया ही जाता है। . औदयिकभाव- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से कर्मों का फल देना उदय है और उदय निमित्तक । भावों को औदयिकभाव कहते हैं अथवा उदय से युक्त भाव औदयिकभाव है। अर्थात् कर्मों के उदय के निमित्त से उत्पन्न हुआ जीव का भाव औदयिकभाव है। विशेष यह है कि उदय के साथ प्रायः उदीयमान कर्म की उदीरणा भी होती है अतः उदय व उदीरणा दोनों के निमित्त से उत्पन्न भाव औदयिकभाव रूप से विवक्षित हैं। पदगल विपाकी कर्मों के उदय से जीवभाव नहीं होते अतएव जीव विपाकी कर्मों के उदय से उत्पन्न भाव औदयिकभाव कहलाते हैं। यह 21 विकल्प-भेद वाला भाव है। आचार्य उमास्वामी ने चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व और छह लेश्याएं इन इक्कीस औदयिक भावों का कथन किया है। 3 हाँ कर्मों की जातियाँ और उनके अवान्तर भेद अनेक हैं अतः उनके उदय से होने वाले भाव भी अनेक हो जाते हैं किन्तु उक्त इक्कीस भेदों में सभी का अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे कि आयु, गोत्र और जाति, शरीर, अंगोपांग आदिनामकर्म प्रभृतिका एक गतिरूप औदियिकभाव में ही समावेश हो जाता है। और कषाय में हास्यादिक नौ नोकषाय का अन्तर्भाव हो जाता है। ऐसा ही अन्य का समझना चाहिए। नरकगति आदि औदयिकी हैं क्योंकि नरकगति नामकर्म के उदय से नारकभाव हुआ करते हैं इसी प्रकार उक्त सभी के साथ नियम है। लेश्या नाम का कोई भी कर्म नहीं है अतएव लेश्या रूप भाव पर्याप्ति नामकर्म के उदय से अथवा पुद्गल विपाकी शरीरनामकर्म और कषाय इन दो के उदय से हुआ करते हैं। क्योंकि कषाय के उदय से अनुरंजित मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को ही लेश्या कहते हैं। असिद्धत्वभाव आठ कर्मों के उदय से अथवा चार अघातिकर्मो के उदय से हुआ करते है। भावों का प्रकरण होने से अंतरंग परिणाम विशेष भावलेश्या का ही ग्रहण किया गया है। औदयिक भावों विशेष यह है कि एकेन्द्रियजाति जैदियकभाव है। क्योंकि यह जीवभाव एकेन्द्रिय जातिनाम कर्म के उदय से ही उत्पन्न होता है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय जाति आदि भावों को भी जानना चाहिए। सासादन भाव का औदयिकत्व भी सिद्ध है।' रागभाव भी औदयिक है क्योंकि इसकी उत्पत्ति माया, लोभ, हास्य, रति और तीन वेद रूप द्रव्यकर्मों के विपाक अर्थात् उदय से होती है। दोषभाव भी औदयिक है क्योंकि इसकी उत्पत्ति क्रोध, मान, अरति, शोक, भय, और जुगुप्सा रूप द्रव्यकर्म के विपाक से होती है। पांच प्रकार का मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व ।

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