Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
View full book text
________________
4381 और सासादन मोह कहलाता है। यह मोहभाव भी औदयिक है क्योंकि इसकी उत्पत्ति मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी रूप द्रव्य कर्म के उदय से होती है। इसका विस्तार सिद्धान्त ग्रन्थों से जानना चाहिए। ___ पारिणामिकमाव-जिनके होने में द्रव्य का स्वरूप मात्र लाभ का कारण है, वह परिणाम है और जिस भाव
का प्रयोजन परिणाम है, वह पारिणामिक भाव है। ये पारिणामिकभाव कर्म के उदय, उपशम, क्षय और । क्षयोपशम के बिना होते हैं। अर्थात् बाह्य निमित्त के बिना द्रव्य के स्वाभाविक परिणमन से जो भाव प्रकट होता । है, वह पारिणामिक भाव है। यह जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व के भेद से तीन प्रकार का है।
जीवत्व- यह शक्ति आत्मा की स्वाभाविक है इसमें कर्म के उदयादि की अपेक्षा नहीं पड़ती अतः यह पारिणामिक है। जीवत्व से तात्पर्य चैतन्य से है। भावों के प्रकरण में चैतन्य गुण सापेक्ष जीवत्व की ही मुख्यताया होती है, जीवन क्रिया सापेक्ष की नहीं। चैतन्य गुण सब जीवों में समान पाया जाता है और कारण निरपेक्ष होता है। जीवत्व पारिणामक अब द्रव्य या गुण तो हो नहीं सकता क्योंकि द्रव्य - गुण दोनों सामान्य विशेष स्वरूप है क्योंकि द्रव्य पर्याय व गुण पर्याय दोनों प्रकार के विशेष भी पाये जाते हैं। जीवत्व पारिणामिक भाव पर्याय भी नहीं है क्योंकि पर्याय तो स्वयं विशेष है। जीवत्व उन सब पर्यायों में अन्यत्र रूप से रहने वाला और प्रौव्य से लक्षित सामान्य होता है। जीवत्व पारिणामिक भाव प्रौव्य स्वरूप होने से उत्पाद-व्यय स्वरूप नहीं है। जीवत्व द्रव्यार्यिकनय का विषय होने से अनादि अनन्त नित्य अर्थात् कूटस्थ है। भव्यत्वः जो सिद्ध पद को प्राप्त करने योग्य है, उसको भव्य कहते हैं आचार्य अकलंकदेव ने इसका स्वरूप बताते हुए कहा है 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप पर्याय से भविष्यकाल में आत्मा परिणमत करेगी अथवा जिसमें सम्यग्दर्शन पर्याय रूप परिणमन करने की शक्ति है, वह भव्य है उसकी परिणमिति भव्यत्व है। - अभव्यत्व- जिसके सिद्ध होने की योग्यता नहीं पायी जाती है, वह अभव्यत्व1 है और उसकी परिणति । अभव्यत्व है। ' आचार्य उमास्वामी ने उक्त तीनों भावों को बतलाने के लिए 'जीवभव्याभव्यत्वादनि' सूत्र लिखा है। तीनों परिणमित भावों के स्वरूप को जानने के बाद सूत्र में आये हुए आदि पद के प्रयोजन जानने की इच्छा होती है जिसका समाधान यह है कि अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, गुणवत्व, असर्वगत्व अनादि कर्म सन्तान बद्धत्व प्रदेशत्व, अरूपत्व, नित्यत्व आदि और भी अनेक जीव के अनादि पारिणामिकभाव हैं किन्तु ये भाव जीव के असाधारण नहीं है धर्मादि अन्य द्रव्यों में भी पाये जाते हैं। असाधारण पारिणामिक तीन ही हैं। अतः इन्हीं तीन का शब्दतः उल्लेख किया गया है।23।
उक्त औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक में कर्मों की उपाधि का चतुर्विधपना (कर्मों की चार दशाये) कारण है तथा पारिणामिकभाव में स्वभाव कारण है। पांचों भावों में औदयिकभाव बन्ध के करनेवाले हैं औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक भाव मोक्ष के करने वाले हैं तथा पारिणामिक भाव बन्ध और मोक्ष दोनों कारण से रहित हैं। यहाँ इतना विशेष ध्यातव्य है कि सभी औदयिक बन्ध के कारण नहीं हैं क्योंकि सभी औदयिकभावों को बन्ध कारण मानने पर गति, जाति आदि नामकर्म सम्बन्धी मनुष्यगति पञ्चेन्द्रियजाति आदि का अयोगकेवली गुणस्थान में उदय है किन्तु बन्ध नहीं हैं अतः सभी औदयिक भावों को बन्ध का कारण नहीं मानना चाहिए।26
जीव के निज भावों की बन्धनकारणता पर विचार के अनन्तर किन जीवों के कितने भाव होते हैं, इस पर विचार किया जाता है। पांचों भाव जीव के ही होते हैं किन्तु प्रत्येक जीव के पांचों भाव पाये जाने का कोई नियम ।