Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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जैन आगम साहित्य में अनुष्ठान, पूजा एवं विधान
पं. सनतकुमार बिनोदकुमार जैन (रजवांस, सागर, म.प्र.) जैन आगम साहित्य में अनुष्ठान की चर्चा श्री जिनसेनाचार्य ने महापुराणान्तर्गत श्रावक धर्म का कथन करते हुए की है। गर्भाधान आदि का स्वरूप बताकर इनका अनुष्ठान करने का निर्देश दिया है। कृषि आदि आजीविका का अनुष्ठान करने को कहा है। अनुष्ठान के उपरोक्त कथन से अनुष्ठान को विधि, पद्धति, नियम, ढंग, तरीका आदि भी कह सकते हैं। चतुर्मुख, सर्वतोभद्र पूजाएं महापूजा कहलाती हैं। इन्हें विधि विधान से करने का एवं पंचपरमेष्ठी और शास्त्र की वैभव से नाना प्रकार की जो पूजा की जाती है, उसे पूजा विधान कहते हैं। अर्थात् पूजा विधान को जाप, हवन के साथ विधिपूर्वक करने को अनुष्ठान कहा जाता है। अनुष्ठान विधान का नामांतर ही है। वर्तमान में पूजा, जाप एवं हवन को अनुष्ठान व्यवहृत किया जाता है। अनुष्ठान वैदिक । संस्कृति में और विधान शब्द श्रमण संस्कृति में बहुप्रचलित है। विधि-विधान अर्थात् पूजन, जाप हवन पूर्वक की जाने वाली महापूजा है। जो प्रतिदिन मंदिर जाकर पूजा की जाती है वह नित्य पूजा है और जो किसी पर्व, प्रसंग पर वैभव के साथ की जाती है, वह महापूंजा कहलाती है।
पूजन श्रावक का आवश्यक / कर्त्तव्य है पूजन मोक्ष प्राप्ति के लिए बीज समान है। पूज्य के गुणानुवाद, गुणस्मरण, स्तुति, स्तवन के साथ पूज्य के प्रति पूजक का पूर्ण समर्पण पूजन है। आचार्यों ने इसे वैयावृत्त, अतिथि संविभाग, सामायिक और पदस्थ ध्यान में सम्मिलित किया है। पूजा आत्मकल्याण का प्रथम सोपान है इससे संसार के समस्त दुःख दूर होते हैं एवं समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। गृहस्थ के पाँच सूनाओं से होने वाले दोषों / पापों की निवृत्ति के लिए एवं आत्मकल्याण की भावना से प्रतिदिन पूजन करना आवश्यक होता है तभी वह गृहस्थ जन्म दोषों से मुक्त होकर मुक्तिमार्ग में लग पाता है। पूर्वाचार्यों ने मन की स्थिरता, सैद्धान्तिक विषय को सरलता से ग्रहण कराने की भावना एवं न्यायोपार्जित धन के सदुपयोग के लिए पूजा के अनेक । भेद बतलाये हैं। यथा- पूजा के दो भेद
(1) द्रव्यपूजा - वचन और मन का संकोच करना (2) भावपूजा - मन का संकोच करना