Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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| मोह, महामोह, तामिश्र और अंधतामिश्र। इसी को योग दर्शन में अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश । कहा गया है।
__ अविया या तम- अनित्य को नित्य, अशुचि को शुचि, इन्द्रियादि अनात्माओं को आत्मा मानना अविद्या है। यह अंधकार की तरह आत्मा को आवरणित करता है अतः इसे तम भी कहा गया है। ____ अस्मिता या मोह - बुद्धि और पुरुष दोनो भिन्न-भिन्न हैं किन्तु दोनों को अभिन्न मानकर अहंकार का निर्माण कर लेना अस्मिता है बुद्धि और पुरुष में मोह उत्पन्न होने के कारण इसे मोह भी कहा गया है।
राग या महामोह-विषय, शरीर और इन्द्रियों में सुख की तृष्णा ही राग है। समस्त मोह का आधार कारण यही है इसलिए इसे महामोह भी कहा गया है।
देष या तामित्र - अनात्मधर्म दुख के त्याग की इच्छा ही द्वेष है यह एक क्रूर तामसी धर्म है इसलिए द्वेष को . तामिश्र भी कहा जाता है।
अभिनिवेश या अंपतामित्र:मरणत्रास ही अभिनिवेश है यह मृत्य भय विद्वान मर्ख सभी जीवों में अंधे की तरह अज्ञान पैदा कर देता है। तामस धर्म होने से जीवों में अंधता उत्पन्न करने के कारण इसे अंधतामिश्र भी कहा गया है। इन पाँच विपर्याय के कुल 62 भेद प्रभेद स्वीकार किये गए हैं।28 अविद्या के आठ भेद-आत्मा और प्रकृति के विकारों से संबंधित हैं। अस्मिता के आठ भेद पुरूष के अहंकार से संबंधित हैं। इस प्रकार का राग इन्द्रिय व विषय की कामना पर आधारित है। इसी प्रकार अठारह प्रकार का द्वेष एवं अठारह प्रकार का अभिनिवेश सांख्य दर्शन मानता है।
इस प्रकार सांख्य दर्शन बंधन के मूल कारण में विपर्यय को स्वीकार करते हुए इसकी विस्तार से व्याख्या करता है। विपर्यय के अतिरिक्त भी दो और कारण हैं जिन्हें सांख्य बंधन के कारण रूप में स्वीकार करता है।
अशक्ति : ज्ञान प्राप्ति में असमर्थ को अशक्ति कहा गया है। अर्थात् किसी भी विषय को निश्चय एवं क्रियात्मक रूप देने की क्षमता का अभाव अशक्ति है। अशक्ति के कारण बुद्धि अपना कार्य ठीक ढंग से सम्पादित नहीं कर पाती। अशक्ति का निर्माण बाध्य परिस्थितियों पर आधारित है। शारीरिक दोष, मानसिक दोषादि के कारण जीव में अशक्ति का निर्माण होता है जिससे बुद्धि की विवेक क्षमता प्रभावित हो जाती है। __तुष्टि : प्रकृति से भिन्न पुरुष तत्त्व है इस बात को जानते हुए भी श्रवण, मनन, निदिध्यासन द्वारा उसके विवेक रूपी साक्षात्कार के लिये किसी असत उपदेश के प्रभाव के कारण प्रवृत्ति न होना ही तुष्टि का लक्षण है।३० अर्थात् मोक्ष उपाय से विमुखता ही तुष्टि है। ऐसा जीव, पुरुष से भिन्न अन्य तत्व को ही साध्य मानकर उसकी प्राप्ति से संतुष्ट हो जाता है। जिसके कारण आत्मचिंतन से विमुख होकर बंधनग्रस्त हो जाता है। आभ्यंतर रूप से प्रकृति, उपादान, काल एवं भाग्य के रूप में यह चार प्रकार की होती है। प्रकृति स्वयं आत्म साक्षात्कार करा देगी इसलिए प्रयत्न की जरूरत नहीं यह विचार प्रकृति तुष्टि है। इस प्रकार के चिंतन से जीव निष्क्रिय बन जाता है और संसार में डूब जाता है अतः इसका नाम अम्भ भी है। प्रव्रज्या धारण कर संन्यास ले लिया तो मुक्ति हो जाएगी किसी अन्य कर्म की अपेक्षा नहीं इस प्रकार के चिंतन से संतुष्ट रहना अपादान तुष्टि है। इसका अन्य नाम सलिल भी है। समय आने पर स्वयं विवेक ख्याति हो जाएगी इस भाव से संतुष्ट रहना काल तुष्टि है। भाग्य के आधार पर आत्म साक्षात्कार हो जाएगा इस भाव से संतष्ट रह जाना भाग्य तष्टि है। तष्टियाँ कल नौ हैं। इस । प्रकार सांख्य दर्शन में बंधन के तीन कारण स्वीकार किये गये हैं किन्तु इसमें मूल कारण अविवेक या विपर्यय ही है जिसका संबंध बुद्धि से है। बुद्धि, प्रकृति का सर्ग है जिसके आठ धर्म हैं इन आठों धर्मों में चार सात्विक और ।
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