Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti

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Page 468
________________ समसाहित्य में आयर्वेद चिकितन 4 2311 होते थे। किसी एक वैद्य ने एक सिंह के नेत्रो की चिकित्सा कर उसके नेत्र खोल दिए। (बृहतवृत्ति पत्र 462) 'केनचित, भिषजा, व्याघ्रस्य चक्षुरूद्धा टिलमटव्याम।' वैद्यक शास्त्र के विद्वान (वद्य) को दृष्टपाठी, जिसने प्रत्यक्ष कर्माभ्यास के द्वारा वास्तविक अध्ययन किया है कहा गया है। (निशीथ चूर्णि 7/1757) । प्राचीनकाल में वैद्य किन-किन साधनों और विधियों से चिकित्सा या वैद्यकीय कर्म करते थे इसका सुन्दर वर्णन विपाक सूत्र में निम्न प्रकार से किया गया है : 'वैद्य अपने घर से शास्त्रकोष लेकर निकलते थे और रोग का निदान निश्चय कर अभ्यंग, उबटन (उद्धर्तन), स्नेहपान, वमन, विरेचन, अवदहन (लोहे की गर्म शलाका से दागना) अवस्नान (औषधियों से सिद्ध किए हुए जल से स्नान करना, अनुवासना (बत्ति यंत्र द्वारा तेल आदि स्नेह द्रव्य गुद मार्ग से आंतो में पहुंचाना, बस्तिकर्म (बस्ति यंत्र द्वारा औषधियों से निर्मित क्वाथ द्रव्य को गुदा मार्ग से आंतों में पहुंचाना, शिरोबंध (अशुद्ध रक्त का वहन करने वाली सिरा का वेधन कर अशुद्ध रक्त बाहर निकालना), तक्षण (छुरा आदिसे त्वचा काटना) प्रतक्षण (छुरा आदि से त्वचा में गोदना), शिरोबस्ति (सिर पर चारों ओर चर्म से निर्मित वेष्टन या थैलनुमा चर्मकोष बांधकर उसमें औषधियों से सिद्ध किया हुआ या संस्कारित तेल आदि स्नेह द्रव्य भरना), तर्पण (संस्कारित तेल आदि स्नेह द्रव्य से नेत्र आदि अंगों का तषर्ण करना), पुटपाक (औषध द्रव्य पर मिट्टी का लेप लगाकर उसे गरम करना और फिर मिट्टी हटाकर औषध द्रव्य को निचोड़ कर उसका स्वरस निकालना), छाल, वल्ली, (गंदा आदि) मूल, कंद, पत्र पुष्प, फल, बीज, शिलिका (चिरायता आदि कड़वी औषधि), गुटिका, औषध और भेषज से रोगी की चिकित्सा करते थे। (विपाक सूत्र पृष्ठ) निशीय चूर्णि में प्रतक्षण शस्त्र, अंगुलि शस्त्र, शिरोवेध शस्त्र, कल्पन शस्त्र, लैइ कंटिका, संडासी, अनुवेधन । शलाका, ब्रीहिमुख और सूचीमुख शस्त्रों का उल्लेख मिलता है। (निशीय चूर्णि। 11/34361) __ तत्कालीन अनेक वैद्यों का उल्लेख विभिन्न आगम ग्रंथों में मिलता है और उनके द्वारा की गई चिकित्सा का वर्णन भी प्राप्त होता है। विपाक सूत्र में विजय नगर के धन्वन्तरि नामक वैद्य का उल्लेख मिलता है। वह आयुर्वेद के आठ अंगों का ज्ञाता कुशल वैद्य था और राजा, ईश्वर, सार्थवाह, दुर्बल, म्लान, रोगी, अनाथ, ब्राह्मण, । श्रमण भिक्षुक, कटिक आदि को मछली, कछुआ, ग्राह, मगर, संसुमार, बकरी, भेड, सुअर, मृग, खरगोश, । गाय, भैंस, तीतर, बतख, कबूतर, मयूर आदि के मांस को सेवन करते हुए चिकित्सा करता था। (विपाक सूत्र 7 पृ. 41) ! द्वारका में रहनेवाले वासुदेव कृष्ण के धन्वन्तरि और वैतरणी नामक दो प्रसिद्ध वैद्य थे। (आवश्यक चूर्णि, पृ. 410) विजय वर्धमान नामक गांव का निवासी इक्काई नामक राष्ट्रकूट था। वह पांचसौ गांव का स्वामी था। एक बार वह अनेक रोगों से पीडित हुआ। उसने घोषणा की कि जो वैद्य (शास्त्र और चिकित्सा में कुशल) वैद्य पुत्र, ज्ञायक (केवल शास्त्रज्ञ), ज्ञायक पुत्र चिकित्सक (केवल चिकित्सा में कुशल) और चिकित्सक पुत्र उसके रोग का निवारण करेगा वह उसे विपुल धनराशि देकर उसका सम्मान करेगा। (विपाक सूत्र पृ. 4, आवश्यक चूर्णि 2 पृ. 65) वर्तमान आयुर्वेद शास्त्र में भी तीन प्रकार के वैद्यों का उल्लेख मिलता है- केवल शास्त्र में निपुण, केवल चिकित्सा में निपुण और उभय अर्थात शास्त्र और चिकित्सा दोनों में निपुण। तत्कालीन राज्य शासन की व्यवस्था के अनुसार राजाओं के द्वारा राजवैद्य नियुक्त किए जाते थे जो राजा और उसके परिवार के सदस्यों की चिकित्सा करते थे उनकी आजीविका का प्रबन्ध राज्य शासन की ओर से होता था। किन्तु चिकित्सा कार्य में असावधानी या लापरवाही करने पर राज्य शासन द्वारा उसकी आजीविका बन्द कर

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