Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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स्मृतियों के वातायन से 1
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अवगुण युक्त लौकिक कला धर्मग्रंथ के रूप में माना गया । ( स्थानांग पृ. 855 युवाचार्य महाप्रज्ञ द्वारा सम्पादित)
विभिन्न जैनाचार्यों ने आगम ग्रंथों एवं उत्तरवर्ती धर्म ग्रंथों तथा अन्य ग्रंथों में प्राणावाय का तात्पर्य जीवन विज्ञान और दीर्घायु प्रतिपादित किया है जैसाकि आचार्य वीरसेन द्वारा जयधवला में प्रतिपादित उल्लेख से स्पष्ट है। उनके अनुसार यह विभिन्न प्राणवायुओं, जीवन शक्ति और क्रिया विज्ञानीय विषयों का वर्णन करता है। जयधवला (पृ. 33 ) तथा अन्य पारम्परिक जैन ग्रंथ भी न्यूनाधिक रूप से इसी परिभाषा का समर्थन करते हैं। वस्तुतः प्राणावाय का क्षेत्र केवल जीवन विज्ञान, दीर्घायु और चिकित्सा विज्ञान के बाह्य या ऊपरी तत्वों तक ही । सीमित नहीं है अपितु उससे सम्बन्धित सभी विषयों जैसे शरीर रचना विज्ञान Anatomy, शरीर क्रिया विज्ञान Physiology, द्रव्यगुण कर्म विज्ञान Meteria Medica औषधि निर्माण विज्ञान Pharmacutical आदि का भी इसमें समावेश है। इसके अतिरिक्त रोगियों की चिकित्सा के लिए आवश्यक सुविधाओं, साधनों एवं उपकरणों से सम्पन्न सुसज्जित इस पद्धति पर आधारित चिकित्सालय, औषधालय का निर्माण राज्य शासन अथवा समाज के सम्पन्न समृद्ध वर्ग के लोगों द्वारा किए जाने का उल्लेख ग्रंथों में प्राप्त होता है।
प्राणावाय से सम्बन्धित विभिन्न विषय भगवती आराधना (पृ. 543 ) तथा अन्य ग्रंथों में प्रकीर्ण रूप से पाए जाते हैं। इस विज्ञान (पद्धति) के विषय में कुछ विशिष्ट बिन्दु हैं जो इस पद्धति पर सुदृढ जैनत्व का प्रभाव डालते हैं। जैसे जैनधर्म में मनुष्य के व्यवहारिक जीवन में अहिंसा का पालन एवं अनुसरण करने पर विशेष बल दिया गया है। परिणाम स्वरूप जैन वैद्यक ग्रंथों में ऐसी किसी भी प्रक्रिया या अभ्यास को निषिद्ध किया गया है जिसमें हिंसाचरण हो अथवा जो हिंसामय हो । हिंसामय प्रवृत्ति के कारण ही धन्वन्तरि नामक प्रसिद्ध देव (आयुर्वेद प्रवर्तक धन्वन्तरि से भिन्न) को नारकीय जीवन प्राप्त होने का उल्लेख प्राप्त होता है। (विपाक सूत्र 83) इस प्रकार व्यवहारिक जीवन की भांति जैन चिकित्सा विज्ञान अथवा जैन वैद्यक शास्त्र में किसी भी रूप में एक पूरा अध्याय 1 ही (परिशिटाध्याय) हिंसामय मद्य - मांस-मधु के अवगुणों पर प्रकाश डालते हुए उससे बचने या परिहार करने का निर्देश दिया है। हिंसा की प्रवृत्ति होने के कारण ही शवच्छेदन का उल्लेख या वर्णन जैनायुर्वेद शास्त्र में नहीं है । यही कारण है कि जैन वैद्यक शास्त्र में शरीर रचना विज्ञान, शल्य चिकित्सा जैसे विषयों का विकास नहीं हो पाया।
इसका एक सुपरिणाम यह हुआ कि चिकित्सा कार्य हेतु वनस्पतियों और खनिजों से निर्मित औषधियों के प्रयोग को प्रोत्साहन मिला। विभिन्न प्रकार के पुष्पों और उनके स्वरस से औषधि निर्माण की प्रक्रिया विकसित हुई। पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने इस विषय पर कल्याणकारक की भूमिका में विस्तार से प्रकाश डाला? है । (पृ. 39) जैन विद्वानों ने एक ओर जहां शल्य चिकित्सा का निषेध किया वहां दूसरी ओर उन्होंने रस प्रधान औषधियों (पारद गन्धक एवं अन्य द्रव्यों के मिश्रण से निर्मित औषधियों तथा विभिन्न धातुओं की भस्मों) और विभिन्न सिद्ध योगों का उपयोग प्रचुरता से करना आरम्भ कर दिया। एक समय ऐसा भी आया जब केवल सिद्ध योगों ( औषधियों) के द्वारा ही विभिन्न रोगों की चिकित्सा की जाने लगी। इसी के आधार पर विभिन्न रस ग्रंथों की रचना भी की जाने लगी । कालान्तर में नवीन सिद्ध योग और रसयोग जो स्वानुभूत एवं प्रायोगिक आधार पर प्रत्यक्षीकृत थे भी प्रचलित हुए। इस प्रकार के औषध योगों के प्रयोग ने आयुर्वेद को एक नवीन दिशा दी । । विभिन्न रोगों के उपचार और चिकित्सा में जैन विद्वानों ने वनस्पति, खनिज, क्षार, लवण, रत्न, उपरत्न आदि का विशेष रूप से प्रयोग किया।
बृहत वृत्ति पत्र 475 में वैद्य को प्राणाचार्य कहा गया है। प्राचीन काल में वैद्य पशु चिकित्सा विशेषज्ञ