Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti

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Page 465
________________ pe 1420 स्मृतियों के वातायन से। विवेचन धार्मिक अवधारणाएं एवं आचार शास्त्र के रूप में विषयों का प्रतिपादन सांगोपांग रूप से किया गया है। भारतीय सांस्कृतिक एवं धार्मिक अवधारणों के कारण मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन (जन्म से मृत्यु पर्यन्त) में स्वभावतः धर्म की व्याप्ति है। यही कारण है कि भारतीय जन जीवन में धर्म एक जीवन पद्धति के रूप में विकसित है, जिसमें व्यक्ति और समाज के शारीरिक एवं आध्यात्मिक सुख की संवाहक आचार संहिता का समावेश है। यह सुख की अभिवृद्धि करता है और कष्टों-दुःखों की निवृत्ति करता है। स्थानांग (पृ.850 एवं 920921) में लब्धि एवं निग्रह सहित दस प्रकार के सुखों का वर्णन है। उनमें स्वास्थ्य और दीर्घायु सर्वोपरि है। उनका अनुभव आहार, आश्रय, वस्त्र तथा शारीरिक, मानसिक, प्राकृतिक, आधिदैविक एवं आकस्मिक रोगों के कारण उत्पन्न होने वाले दस प्रकार के दुःखों-कष्टों को कम करते हुए किया जा सकता है। (अष्ट पाहुड पृ. 213) आगमों में प्रकर्ण रूप से प्राप्त उद्धरणों से ज्ञात होता है कि जैनाचार्यों को समुचित स्वास्थ्य के आधारभूत चतुर्विधि पुरुषार्थों (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) को प्राप्त करने का अपेक्षित ज्ञान था। उन्हें भली-भांति यह भी ज्ञात था कि स्वस्थ मस्तिष्क का विकास केवल स्वस्थ शरीर में होता है। इसलिए तत्कालीन ऋषि-मुनि शारीरिक स्वास्थ्य रक्षा के लिए शरीर रचना और क्रिया विज्ञान के साथ साथ सम्पूर्ण जीवन विज्ञान का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक मानते थे। प्रकीर्ण रूप से निम्न वैद्यक सम्बन्धी विषयों का उल्लेख आगम ग्रन्थों में प्राप्त होता है। 1. स्थानांग सूत्र- नौ पाप श्रुतों में चिकित्सा का परिगमन। रोगों की उत्पत्ति के नौ कारण। 2. निशीयचूर्णि – महावैद्य का उल्लेख, इष्टपाकी शस्त्रों का उल्लेख। 3. उत्तराध्ययन- चिकित्सा सम्बन्धी उल्लेख। 4. बृहवृत्तिपत्र- रसायन सेवन से चिकित्सा का उल्लेख। 5. विपाकसूत्र - वैद्यकर्म, चिकित्सा कर्म, धन्वन्तरि नामक वैद्य का उल्लेख, वैद्यपुत्र ज्ञाय का उल्लेख विविध रोगों का उल्लेख। 6. आवश्यक चूर्णि - द्वारका में रहने वाले वैद्य का उल्लेख। 7. व्यवहार भाषा- एक वैद्य की घटना का उल्लेख, दोषत्रय से उत्पन्न होनेवाले विविध रोगों का उल्लेख। 8. बृ. कल्पभाष्य पीठिका- अक्षि रोग चिकित्सा का उल्लेख। 9. दशवैकालिक - मल-मूत्र के वेग को नहीं रोकने का निर्देश। 10. अगस्त्य चूर्णि-वेगों को रोकने के दुष्परिणाम। 11. जिनदास चर्णि-वमन के वेग को रोकने का दष्परिणाम। 12. आचारांग- 16 प्रकार के रोगों का उल्लेख 13. सुखबोध पत्र- रोगों का कथन। 14. बृ. कल्पभाष्यवृत्ति- वल्गुली (जीमिचलाना) विषकुम्भ 15. ओधनियुक्ति- पामा चिकित्सा प्राचीन काल में भूतिकर्म के ज्ञाता, चिकित्सक, उपचारज, नाड़ीज्ञाता एवं प्राणवायु विशेषज्ञ को समाज में पर्याप्त आदर सम्मान एवं महत्त्व प्राप्त था। इसीलिए इन्हें नौ प्रकार के दक्ष लोगों में परिगणित किया गया। एक वर्णन के अनुसार राजाओं के पास शांति और युद्ध के समय सदैव चिकित्सक (वैद्य) होते थे। विभिन्न आगमिक कथानकों में बड़ी संख्या में चिकित्सक, शल्य चिकित्सक और पशु चिकित्सकों का वर्णन है।

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