Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
View full book text
________________
स्मृतियों के वातायन में है।
महापुराण के प्रथम - द्वितीय भाग के रूप में आदि पुराण और उत्तर पुराण हैं, उनमें मुख्यतः 24 तीर्थंकरों के जीवन चरित्रों का विस्तृत वर्णन है साथ ही उनके पूर्व भवों का, 63 शलाका पुरुषों के आदर्श चरित्रों का चित्रण है। आदिपुराण में आदि तीर्थंकर आदिनाथ और चक्रवर्ती भरत - बाहुबली के समग्र जीवन की ऐसी-ऐसी घटनायें हैं जो मानवीय मूल्यों का उद्घाटन करती हुई अत्यन्त सशक्त शैली में आत्मा से परमात्मा बनने की कथा कहती हैं। पाठक उन्हें पढ़कर यह प्रेरणा लेते हैं कि हम अपने मानवीय गुणों को इस तरह विकसित करें ताकि पुनर्जन्म में हमारी अधोगति न हो और कालान्तर में हम यथाशीघ्र इस संसार - सागर से पार होकर अनन्तकाल तक मुक्ति महल में जाकर रहें ।
जैनपुराणों के कथनानुसार मानवीय मूल्यों की मर्यादा केवल मानव के हितों तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि प्राणिमात्र की प्राण रक्षा एवं उनके सुख - दुःख के प्रति करुणा से भरपूर भी होना चाहिए। मानवीय पीड़ा और अन्य प्राणियों की पीड़ा को समान समझना चाहिए। मांसाहारियों को मार्गदर्शन देते हुए कहा गया है
412
"मनुज प्रकृति से शाकाहारी, मांस उसे अनुकूल नहीं है। पशु भी मानव जैसे प्राणी, वे मेवा फल-फूल नहीं है ॥"
वर्तमान मानवीय मूल्यों का दंभ भरनेवाले अनेक राजनेता, समाजसेवक और धर्मगुरु भी जीवजन्तुओं के प्राण पीड़न के प्रति अत्यन्त निर्दय देखे जाते हैं। यद्यपि जैन पुराणों में भी आरंभी, उद्योगी और विरोधी हिंसा पर पूरी | तरह प्रतिबन्ध नहीं है; परन्तु संकल्पी हिंसा का तो सम्पूर्ण रूप से त्याग करने की बात अत्यन्त दृढ़ता से कही गई है तथा आरंभी, उद्योगी और विरोधी से बचने के लिए सतत प्रयत्नशील रहने का उपदेश जैन पुराण देते हैं।
यहाँ ज्ञातव्य है कि सम्पूर्ण जिनागम चार अनुयोगों में विभक्त है । द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और प्रथमानुयोग । समस्त पुराण साहित्य प्रथमानुयोग की श्रेणी में आता है। द्वादशांग में 'दृष्टिवाद नाम के बारहवें अंग के तीसरे भेद का नाम प्रथमानुयोग है। स्वामी समन्तभद्राचार्य ने प्रथमानुयोग का स्वरूप निम्न प्रकार लिखा हैप्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् ।
बोधि समाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥
अर्थात् - ( समीचीनः बोधः ) सम्यग्ज्ञान (प्रथमानुयोग अर्थख्यानं ) प्रथमानुयोग के कथन को (बोधति) जाता है। वह प्रथमानुयोग (चरितं पुराणमपि पुण्य ) चरित्र और पुराण के रूप में पुण्य पुरुषों का कथन करता है। (बोधि-समाधि-निधानं) वह प्रथमानुयोग रत्नत्रय की प्राप्ति का निधान है, उत्पत्ति स्थान है । (पुण्यं ) पुण्य होने का कारण है। अतः उसे पुण्य स्वरूप कहा है।
चरित और पुराण का अन्तर स्पष्ट करते हुए प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं कि “एक पुरुषाश्रिता कथा चरितं " एक पुरुष संबंधी कथन को चरित कहते हैं तथा 'त्रिषष्ठि शलाका पुरुषाश्रिता कथा पुराणं' अर्थात् षट शलाका पुरुषों सम्बन्धी कथा को पुराण कहते हैं। 'तदुभयमपि प्रथमानुयोग शब्दाभिधेयं' चरित एवं पुराण-इन दोनों को प्रथमानुयोग कहा है।
प्रथमानुयोग के भेदों की चर्चा करते हुए धवला टीका में चार गाथायें उद्धृत हैं? जिनका अर्थ इस प्रकार है“जिनेन्द्र देव ने बारह प्रकार के पुराणों का उपदेश दिया है। वे समस्त पुराण जिनवंश एवं राजवंशों का वर्णन करते हैं। पहला पुराण अरहंतों का, दूसरा चक्रवर्तियों का, तीसरा विद्याधरों का, चौथा - नारायण एवं प्रतिनारायणों का, पाँचवां चारणों का, छठा– प्रज्ञा श्रमणों का, सातवाँ - कुरुवंशों का, आठवाँ - हरिवंशों का, नौवां - इक्ष्वाकुवंशों का, दसवाँ - काश्यपवंश का, ग्यारहवाँ - वादियों के वंश का तथा बारहवाँ - नाथवंश का निरूपण करते हैं।