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स्मृतियों के वातायन सं
"बात एक वर्ष पुरानी है। मैंने एक वर्ष पूर्व सिर्फ पत्रिका में अपनी जिज्ञासा हेतु २० प्रश्न किये थे । उसमें पूछा था कि क्या मुनि आइस्क्रीम खा सकता है? उन्होंने इसे चोर की दाढ़ी में तिनका की तरह अपने ऊपर ओढ़कर निरर्थक प्रलापकिया ।"
“यह सत्य है कि मुनि का निन्दक नरकगामी होता है, पर वह मुनि तो हो । यह सत्य है कि मुनि का दिगम्बर होना परमावश्यक है, पर हर नग्न मुनि है ही यह प्रश्न चिन्ह है।” (तीर्थंकर वाणी / फरवरी २००३ / पृ. ३-४ )
कतिपय मुनि न केवल शर्मप्रूफ हो गये हैं, अपितु अपने आगमविरुद्ध स्वच्छन्द भोगसाम्राज्य की सुरक्षा के लिए उद्दण्ड और आतंकवादी भी हो गये हैं। इस सत्य से प्रायः सभी विद्वान् एवं श्रीमान् वाकिफ हैं, किन्तु सार्वजनिक रूप से जुबान खोलने की हिम्मत केवल डॉ. शेखरचन्द्र जी में ही हुई है । वे निम्नलिखित पंक्तियों को लिखने में तनिक भी भयभीत नहीं हुए
“आज जितना रागद्वेष श्रावकों में नहीं है, उतना इन साधुओं में है। सच्ची बात वे सुन नहीं सकते और सच्ची बात कहनेवाले को आशीर्वाद या धर्मलाभ कहने से भी कतराते हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि उनके धर्मविरुद्ध आचरण पर यदि कोई कुछ कहने का दुःसाहस करता है, तो उनके पाले हुए भक्त (लठैत ) कहनेवाले का अपमान करते हैं, परीषह सहने का पाठ पढ़ाते हैं या बिना दीक्षा लिए केशलुंचन तक करवा देते हैं।... आज 1 समाज में जो झगड़े, बँटवारे बढ़ रहे हैं, उनमें इन साधुओं की विशेष भूमिका है। वे सर्वप्रथम अपना दाव जमा ! को समाज में फूट डालते हैं, फिर 'फोड़ो और राज्य करो' की नीति से अपना साम्राज्य जमा लेते हैं।” (तीर्थंकर
वाणी/दिसम्बर २००५/पृ. ४)
वर्तमान के कुछ युवा मुनि अपने या अपने गुरु के नाम से नये तीर्थों की रचना करते हैं। इसके लिए धन - | संचय हेतु फिल्मी सितारों के नाच-गाने का आयोजन कर श्रावकों को मोक्षमार्ग पर ले जाने की बजाय, विषय । कषायों में फँसाने की हद तक पहुँच गये हैं। इस कुकृत्य को जगजाहिर करते हुए डॉ. शेखरचन्द्रजी लिखते हैं
"कभी तीर्थ हमारी आस्था के केन्द्र थे, मन की पत्रिता के धाम थे, मुक्तिमार्ग के प्रेरक थे। उन तीर्थों की दुर्दशा हो रही है और नये तीर्थों के लिए आज सर्वाधिकरूप में साधुवर्ग लगा है। इस निर्माण में वे स्वाध्याय-तपप्रतिक्रमण क्रियाओं को भी भूल रहे हैं। कभी ऐसे तीर्थों में अपने सुकृत की कमाई लगाने में गौरव होता था। साधु भी ऐसा ही धन लगाने की प्रेरणा देता था, पर आज तो हीरो-हीरोइन के नाच-गान करवा के धन इकट्ठा कर रहे हैं। ऐसे तीर्थ विशाल-भव्य तो हो सकते हैं, आत्मा को शान्ति देनेवाले नहीं। लोगों के नाम के पटदर्शक बन सकते हैं, मोक्षमार्ग के प्रणेता नहीं ।" (तीर्थंकर वाणी / मार्च २००५ / सम्पादकीय / पृ. ३) ।
हुए
साधु शिथिलाचार की हद पार कर रहा है और विद्वान् तथा श्रीमान् जुबान सीकर और आँखे मूंदकर बैठे। हैं, जिनशासन को मौत की नींद सुलानेवाली इस दशा को सामने लाते हुए डॉ. शेखरचन्द्र कहते हैं
“आये दिन साधु-श्रावकों के भ्रष्टाचार, शिथिलाचार और अब अनाचार के किस्से छप रहे हैं, टी.वी. पर आ रहे हैं। अभी जी टी.वी. ने एवं एक अखबार ने एक आचार्य के विषय में भयंकर दृश्य दर्शाये व लेख प्रकाशित किये। हम तथ्य के सत्यासत्य में न भी जायें, तो ऐसा प्रकाशन धर्म और अनुयायियों को पीड़ा देनेवाला । व शर्म से सिर झुका देनेवाला तो है ही ।"
“हमारा विद्वान वर्ग भी परस्पर टाँग खींचने में लगा है। साधुओं के खेमे में बँट रहा है उसे भी सभी आर्थिक