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भावीय मूल्यों के राजग प्रहरी जन पुराण मूल गाथाएँ इस प्रकार हैं
बारस विहं पुराणं जं गदिहं जिणवरेहि सब्बेहि। तं सव्वं वण्णेदि हु जिणबंसे रायबंसे य॥ पढ़मो अरहंताणं विदियो पुण चक्कबट्टिवंसो दु। विज्जाहराण तदियो चउत्थओ वासुदेवाणं॥ चारणवंसो तहपंचमो दु छट्ठो य पण्णसमणाणं। सनमओ कुरूवंसो अट्ठमओ तहय हरिवंसो॥ णवमो य इक्खायाणं दसमो विय कासियाण बोडब्बो।
बाईणेक्कारसमो बारसमो शाहवंसो दु॥ पुराणों के कथानकों में कथावस्तु को सर्वांगीण एवं प्रयोजनों की पूर्ति हेतु कुछ कथन काल्पनिक भी होते हैं। जैसे कि- तीर्थंकरों के कल्याणकों में इन्द्रगण आये और उन्होंने स्तुति करी यह तो सत्य है तथा इन्द्र ने स्तुति अपनी भाषा में अन्य प्रकार की थी और ग्रन्थकार ने द्रव्य, क्षेत्र, काल के हिसाब से अन्य भाषा में अन्य प्रकार से ही स्तुति करना लिखा; परन्तु स्तुति का प्रयोजन अन्यत्र नहीं हुआ। __ पुराणों का प्रयोजन प्रगट करते हुए आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं कि "प्रथमानुयोग में तो संसार की विचित्रता, पुण्य-पाप का फल, महन्त पुरुषों की प्रवृत्ति इत्यादि निरूपण से जीवों को धर्म में लगाया है। जो जीव तुच्छबुद्धि हों, वे भी उससे धर्मसन्मुख होते हैं। क्योंकि वे जीव सूक्ष्म निरूपण को नहीं पहिचानते, लौकिक कथाओं को जानते हैं, वहाँ उनका उपयोग लगता है। तथा प्रथमानुयोग में लौकिक प्रवृत्तिरूप ही निरूपण होने से उसे वे भली-भाँति समझ जाते हैं तथा लोक में तो राजादिक की कथाओं में पाप का पोषण होता है। यहाँ महन्तपुरुष राजादिक की कथाएँ तो हैं, परन्तु प्रयोजन जहाँ-तहाँ पाप को छुड़ाकर धर्म में लगाने का प्रगट करते हैं; इसलिये वे जीव कथाओं के लालच से तो उन्हें पढ़ते-सुनते हैं और फिर पाप को बुरा, धर्म को भला जानकर धर्म में रुचिवंत होते हैं। ___ इसप्रकार तुच्छबुद्धियों को समझाने के लिए यह अनुयोग प्रयोजनवाला है। 'प्रथम' अर्थात् 'अव्युत्पन्न मिथ्यादृष्टि', उनके अर्थ जो अनुयोग सो प्रथमानुयोग है। ऐसा अर्थ गोम्मटसार की टीका में किया है।
जिन जीवों के तत्त्वज्ञान हुआ हो, पश्चात् इस प्रथमानुयोग को पढ़ें-सुनें तो उन्हें यह उसके उदाहरणरूप भासित होता है। जैसे- जीव अनादिनिधन है, शरीरादिक संयोगी पदार्थ हैं, ऐसा यह जानता था तथा पुराणों में जीवों के भवान्तर निरूपित किये हैं, वे उस जानने के उदाहरण हुए। तथा शुभ-अशुभ शुद्धोपयोग को जानता । था, व उसके फल को जानता था। पुराणों में उन उपयोगों की प्रवृत्ति और उनका फल जीव के हुआ सो निरूपण । किया है, वही उस जानने का उदाहरण हुआ....।
जैसे कोई सुभट है- वह सुभटों की प्रशंसा और कायरों की निन्दा जिसमें हो ऐसी किन्हीं पुराण-पुरुषों की कथा सुनने से सुभटपने में अति उत्साहवान होता है; उसीप्रकार धर्मात्मा है- वह धर्मात्माओं की प्रशंसा और । पापियों की निन्दा जिसमें हो ऐसे किन्हीं पुराण-पुरुषों की कथा सुनने से धर्म में अति उत्साहवान होता है।। इसप्रकार यह प्रथमानुयोग का प्रयोजन जानना।
इस तरह हम देखते हैं कि जैन पुराण मानवीय मूल्यों के सजग प्रहरी तो हैं ही, प्राणीमात्र की जीवन की सुरक्षा ! करने में मददगार, उन्हें अभयदान देने-दिलाने में सक्रिय भूमिका निभाने वाले और आत्मार्थियों को, मुमुक्षुओं को मुक्ति का मार्ग दिखाने में भी अग्रगण्य हैं।