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काता में सांस्कतिक
4037 सांस्कृतिक सन्दर्भ की दृष्टि से अपनी अभूतपूर्व महनीयता रखता है। साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि कालिदास, अश्वघोष, बाण, क्षेमेन्द्र, दण्डी, कुमारदास, भामह आदि संस्कृत-काव्य के पांक्तेय कृतिकारों की कृतियों के
अध्ययन के सन्दर्भ में प्रवरसेन ही एक ऐसे प्रयोगवादी महाकवि थे, जिन्होंने अपने समकालीन ही नहीं, पूर्ववर्ती । महाकवियों की भी संस्कृत-रचनाओं को अतिक्रान्त कर, प्राकृत के क्षेत्र में अपनी काव्य-कला के प्रयोग का ! सफल एवं विस्मयकारी प्रदर्शन किया है। यही कारण है कि 'सेतुबन्ध' की अनुकृति, जैसा पहले कहा गया,
अनेक परवर्ती संस्कृत-कवियों ने की। कहना न होगा कि आश्चर्यकर अलंकार-योजना, प्राणवान् चरित्रचित्रण, गौरवोद्घोषक सांस्कृतिक अभिनिवेश एवं आकर्षक नाटकीय कथोपकथन के विन्यास में प्राकृत का यह महाकाव्य संस्कृत के समस्त महाकाव्यों का सुमेरुशिखर बना हुआ है। अतएव, प्रवरसेन का, अपनी इस दुष्कर कमनीय कृति के सम्बन्ध में, यह गर्वोद्घोष बड़ा समीचीन है:
अहिणवराआरता चुक्कक्खलिएतु विहडिअपरिद्वाविआ।
मेत्तिब पमुहरसिआ णिबोलु होइ दुक्करं कम्बकहा॥ (1.9) ____ अर्थात् राजा प्रवरसेन द्वारा आरब्ध श्रेष्ठ छन्दवाली इस काव्यकथा का निर्वाह करना या समझना रसिकश्रेष्ठों से मैत्री के निर्वाह के समान बड़ा ही दुष्कर कार्य है; क्योंकि इसमें प्रमाद और स्खलन सम्भव है। फिर, ऐसी स्थिति में विघटन और परिमार्जन भी आवश्यक है।
गउडवहो :
सांस्कृतिक-साहित्यिक तत्त्वों से ओतप्रोत प्राकृत के शास्त्रीय महाकाव्यों में कविराज वाक्पतिराज-प्रणीत 'गउडवहो' भी शीर्षस्थ माना गया है। आर्या छन्द में निबद्ध यह एक ऐतिहासिक मूल्य रखनेवाला प्राकृत का देदीप्यमान काव्यरत्न है। इस काव्य का अध्ययन भी संस्कृत-काव्यों के अध्ययन के सन्दर्भ में अपनी अनिवार्यता रखता है। चित्त को चमत्कृत करनेवाली शैली में उपन्यस्त इस प्राकृत-काव्य के प्रकाश में ही भास, कालिदास, | सुबन्धु, भवभूति, हरिचन्द्र आदि कवियों के संस्कृत-काव्यों का सही एवं सांगोपांग अध्ययन किया जा सकता है। कान्यकुब्ज (कन्नौज) के अधिपति यशोवर्मा द्वारा गौडदेश के किसी राजा का वध ही इस विच्छत्तिपूर्ण काव्य का मूल कथ्य है। गौडराजा का स्पष्ट नामोल्लेख नहीं है। यशोवर्मा की स्तुति के सन्दर्भ में उसके खड्ग की प्रशंसा । करते हुए कवि ने केवल 'गौडगलच्छेद' का उल्लेख किया है :
तुह धारा-संसाणिआ-गइन्द-मुत्ताहलो असी जयइ।
गउड-गलच्छे द-अवलग्ग संठिएआवली ओब्ब॥ (गाथा : 1194) अर्थात् सान पर तेज किये हुए, गजमुक्ता जैसी चमकती धारवाले तुम्हारे खड्ग की जय हो, जो गौडराजा के । गलच्छेद में संलग्न रहने से (राजा के गले में पड़ी) एक लड़ीवाला हार जैसा लगता है।
महाराष्ट्री प्राकृत की कुल 1209 गाथाओं या आर्याओं में आबद्ध इस काव्य में चरितनायक के प्रति कवि की प्रशंसामुखर आदर्शवदिता, ऐतिहासिक सम-सामयिकता-बोध की वर्णनविपुलता और प्राकृतिक चित्रण की प्राणवत्ता का त्रिवृत्यात्मक संयोजन है। प्राकृत के कवियों द्वारा अपने-अपने काव्यों के प्रस्तुतीकरण में अन्तरंग और बहिरंग कथाशिल्प की जो स्थापना की गई है, उसमें नव्यवादिता का आग्रह सुस्पष्ट दिखाई पड़ता । है। अर्थात्, शिल्प और भाव की दृष्टि से प्राकृत के कवि कुछ नया कहना और कुछ नया दिखाना चाहते हैं। संस्कृत-काव्यों की वर्णन-परम्परा में प्राकृत-कवियों ने संशोधन और विकास लाने की चेष्टा बराबर की है। ! वाक्पतिराज ने भी भवभूति के काव्योत्कर्ष की प्रभा से भास्वर अपने इस काव्य की स्वीकृत कथावस्तु में भावों को।
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