Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti

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Page 450
________________ आपणा -काता में सांस्कृतिक नाना 405] पउमचरिय संस्कृत-साहित्य की रामकाव्य-परम्परा में जो शीर्षस्थान आदिरामकाव्य 'वाल्मीकिरामायण' को प्राप्त है, वही स्थान प्राकृत में जैनाचार्य विमलसूरि-रचित 'पउमचरिय' को उपलब्ध है। किन्तु यह तथ्य ध्यातव्य है कि 'वाल्मीकिरामायण' को पुराण की कोटि में परिगणनीयता मिल गई है। किन्तु चरितकाव्य 'पउमचरिय' के लेखक ने इस खतरे से अपने को बराबर आगाह रखा है कि लिख्यमान चरितकाव्य कहीं पुराण न हो जाय। फलतः उसने प्रत्येक पौराणिक विषय की प्रतिष्ठा रसानभति के उस धरातल पर की है, जहाँ पाठक मनोरंजन के साथ ही भाव-तादात्म्य भी प्राप्त कर लेता है। इसे प्राकृत का सर्वप्रथम और सर्वाधित चर्चित चरित-महाकाव्य होने का गौरव प्राप्त है। ___ प्राकृत 'पउमचरिय' के रचयिता जैनाचार्य विमलसूरि आचार्य राहु के प्रशिष्य, विजय के शिष्य एवं नाइल्लकुल के रत्न थे। नाइल्लों ने ईसा पूर्व प्रथम शती में उज्जयिनी में राज्य किया था, इसी समय महाकवि कालिदास हुए थे, जिन्होंने रघुवंश-महाकाव्य (रामचरित) की रचना की थी। जैनाचार्य मेरुतुंग की प्रसिद्ध कृति 'स्थविरावली' ('थेरावली') के अनुसार, नाइल्ल गर्दभिल्ल-कुल में उत्पन्न हुए थे। 'स्थविरावली' के आधार पर यह कहना अत्युक्ति नहीं कि गर्दभिल्ल-वंशपरम्परा के नाइल्लकुलभूषण आचार्य विमलसूरि के 'पउमचरिय' की रचना के पूर्व कालिदासकृत काव्यात्मक रामचरित ('रघुवंश') की परम्परा प्रचलित हो चुकी थी। यद्यपि विमलसूरि का प्राकृतरचना-सौष्ठव कालिदास की पारम्परिक कथावस्तु से अलग हटकर स्वतन्त्र रूप में विकसित हुआ है, जो अपनी विशिष्ट मौलिकता की महनीयता से समन्वित है। वर्णन की विशालता से युक्त 118 सर्गों में आबद्ध प्रस्तुत चरितकाव्य 'पउमचरिय' ने परम्परित रामकथा को तथाकथित ईश्वरवाद की अपुंसकता से बचाने के लिए अपना मानववादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है, जिसमें । हमें अज, अनन्त, अनादि ब्रह्म राम की जगह विशुद्ध मानव राम के दर्शन होते हैं। 'वाल्मीकिरामायण' से इसकी । कथा-विशेषता इस अर्थ में है कि इसमें कवि ने 'वाल्मीकिरामायण' की कथावस्तु के ईश्वरवादी स्थलों में ! किंचित् संशोधन कर यथार्थबुद्धिवादी मानवतावाद या कर्मप्रधानता की प्रतिष्ठा की है; क्योंकि प्राकृत का । चरितकाव्य केवल व्यक्तिगत 'क्रिया' का नहीं, बल्कि समष्टिगत 'कर्म' का प्रबन्ध है। इसका कथा-प्रवाह लौकिकता के धरातल पर सामान्य भाव से गतिशील दिखाई पड़ता है। भाषा की सुष्टुता तथा वर्ण की सिष्ठता की दृष्टि से 'पउमरिय' को महाकाव्य की कोटि में रखते हैं, जो उसकी वर्णनगत काव्यमयी रमणीयता की समृद्धि की दृष्टि से असंगत नहीं। तत्त्वतः, 'पउमचरिय' महाकाव्यगुणभूयिष्ठ चरितकाव्यों में वरेण्य है। ___ इस सन्दर्भ में विशेषतः ज्ञातव्य है कि संस्कृत में रामकाव्य की बड़ी समृद्ध परम्परा प्राप्त होती है और प्राकृत की रामकाव्य-परम्परा भी अपनी अभिराम अपूर्वता के लिए अभिनन्दनीय है। प्राकृत-मुक्तकों की परम्परा और विकास : प्राकृत-मुक्तकों की अभिनव एवं प्रौढ़ परम्परा 'गाथासप्तशती' से आरम्भ होती है। किन्तु 'गाथासप्तशती' की गीतिकाव्यात्मक प्रौढि यह इंगित करती है कि इतः पूर्व भी प्राकृत की गीति-मुक्तकों की रचनाएँ अस्तित्व में आ चुकी होंगी। गोवर्द्धनाचार्य की 'आर्यासप्तशती', अमरुक का 'अमरुकशतक' एवं भर्तृहरि का 'भर्तृहरिशतक' तो निश्चय ही प्राकृत-गीति मुक्तक के आधेय हैं। प्राकृत-मुक्तकों की धारा स्तोत्रात्मक भक्तिकाव्य एवं रसेतर नीतिकाव्य के रूप में भी प्रवाहित हुई है। धार्मिक पृष्ठभूमि के साथ जीवन की अन्यान्य विधा-वृत्तियों के साम्यीकरण के कारण प्राकृत के मुक्तक-गीतिकाव्यों में जीवन की विभिन्नताएँ प्रतिफलित हुई हैं। प्राकृत के

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