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काव्य में सांस्कृतिक चेतना
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चित्र है : रसोई के काम में लगी हुई गृहिणी के कालिख - पुते हाथ के स्पर्श से उसके अपने ही मुँह पर काला धब्बा पड़ गया। उसे देखकर उसके पति ने मुस्कराते हुए कहा : 'अब तो तुम्हारा मुख सचमुच चन्द्रमा ही बन गया है; क्योंकि कलंक की जो कमी थी, वह भी पूरी हो गई है । '
इस प्रकार की एक-दो नहीं, सात सौ गाथाएँ हैं, जो भाव और रस की एक-एक तरंगिणी की तरह है। इस विलक्षण कृति से न केवल कवि को शाश्वतता मिली है, अपितु प्राकृत को भी अक्षय अमरता प्राप्त हो गई है। वैदर्भी शैली में निबद्ध यह गीतिकाव्य अलंकार और व्यंग्य की चरमोत्कर्षता से काव्य के उत्तुंग शिखर पर आसीन गया है।
उपसमाहार
प्राकृत-साहित्य की तात्त्विक उपलब्धियाँ
तत्त्वतः, प्राकृत-साहित्य, सहस्राधिक वर्षों तक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टि से भारतीय जनजीवन का प्रतिनिधि - साहित्य रहा है। इसमें तत्कालीन सामाजिक जीवन के अनेक आरोह-अवरोग प्रतिबिम्बित हुए हैं। जहाँतक भारतीयेतिहास और संस्कृति का प्रश्न है, प्राकृत-साहित्य इन दोनों का निर्माता रहा है। यद्यपि प्राकृत का अधिकांश साहित्य अभी तक अध्ययन - अनुचिन्तन की प्रतीक्षा में है और उसके तथ्यों का तात्त्विक उपयोग इतिहास-रचना में नहीं किया जा सका है, तथापि वर्तमान में प्राकृत का जो साहित्य उपलब्ध हो पाया ! है, उसका फलक संस्कृत - साहित्य के समानान्तर ही बड़ा विशाल है। रूपक का सहारा लेकर हम ऐसा कहें कि प्राकृत और संस्कृत, साहित्य दोनों ऐसे सदानीर नद हैं, जिनकी अनाविल धाराएँ अनवरत एक-दूसरे में मिलती रही हैं। दोनों परस्पर अविच्छिन्न भाव से सम्बद्ध हैं। विधा और विषय की दृष्टि से प्राकृत-साहित्य की महत्ता सर्व-स्वीकृत है। भारतीय लोक-संस्कृति के सांगोपांग अध्ययन या उसके उत्कृष्ट रमणीय रूप-दर्शन का असितीय माध्यम प्राकृत-साहित्य ही है। इसमें उन समस्त लोकभाषाओं का तुंग तरंग प्रवाहित हो रहा है, ! जिन्होंने भाषा के आदिकाल से देश के विभिन्न भागों की वैचारिक जीवन - भूमि को सिंचित कर उर्वर किया है एवं अपनी शब्द - संजीवनी से साहित्य के विविध क्षेत्रों को रसोज्ज्वल और ज्ञानदीप्त बनाया है।
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शास्त्रीय दृष्टि से प्राकृत का उद्भव - काल ईसवी पूर्व छठीं शती स्वीकृत है और विकास - काल सन् १२०० ई. तक माना जाता है । परन्तु, यह भी सही है कि प्राकृत भाषा में ग्रन्थ-रचना ईसवी - पूर्व छठीं शती से प्रायः वर्त्तमान काल तक न्यूनाधिक रूप से निरन्तर होती चली आ रही है। यद्यपि, प्राकृतोत्तर काल में हिन्दी एवं तत्सहवर्त्तिनी विभिन्न आधुनिक भाषाओं और उपभाषाओं का युग आरम्भ हो जाने से संस्कृत तथा प्राकृत में ग्रन्थ - रचना की परिपाटी स्वभावतः मन्दप्रवाह परिलक्षित होती है। किन्तु, संस्कृत और प्राकृत में रचना की परम्परा अद्यावधि अविकृत और अक्षुण्ण है। और, यह प्रकट तथ्य है कि संस्कृत और प्राकृत दोनों एक-दूसरे । के अस्तित्व को संकेतित करती हैं। इसलिए, दोनों में अविनाभावी सम्बन्ध की स्पष्ट सूचना मिलती है। प्राकृत-साहित्य : भारतीय विचारधारा का प्रतिनिधि
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प्राकृत-साहित्य पिछले ढाई हजार वर्षों की भारतीय विचारधारा का संवहन करता है। इसमें न केवल उच्चतर साहित्य और संस्कृति का इतिहास सुरक्षित है, अपितु मगध से पश्चिमोत्तर भारत ( दरद - प्रदेश) एवं हिमालय ! से श्रीलंका (सिंहलद्वीप) तक के विशाल भू-पृष्ठ पर फैली तत्कालीन लोकभाषा का भास्वर रूप भी संरक्षित है। प्राकृत-साहित्य का बहुलांश यद्यपि जैन कवियों और लेखकों द्वारा रचा गया है, तथापि इसमें तयुगीन जनजीवन का जैसा व्यापक एवं प्राणवान् प्रतिबिम्बन हुआ है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। न केवल भारतीय पुरातत्त्वेतिहास