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मनियरिक वातावन में ।
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गणितज्ञ महावीराचार्य
डॉ. पी.सी. जैन श्री धरसेनाचार्य ने धवला का लेखन भूतबली एवम् पुष्पदन्त से शकसंवत् 735 में गिरनार में पूरा कराया। लगभग तभी दक्षिण में महावीराचार्य (9वीं शताब्दी) गणित के विभिन्न वियाओं के क्षेत्र में संग्रहण, सम्पादन, एवम् नये सिद्धान्तों के प्रतिपादन में रत थे। दीर्घवृत की कल्पना की, क्षेत्र निकालने के सूत्र में निमंताक निकाला जो वर्तमान I के निकटस्थ है। गणित के व्यवहार एवम् सिद्धान्त में एकाकार किया।
राष्ट्रकूट वंश परम्परा में अमोघवर्ष का राज्यकाल ईसा की नौवीं शताब्दी मे आता है। इसी समयावधि एवम् कार्यकाल में गणित की व्यवस्थित सामग्री का स्पष्टीकरण 'महावीराचार्य' ने - गणितसार संग्रह - में किया। उनके नाम से एक ओर कृति - ज्योतिष पटल - का भी उल्लेख आता है किन्तु वह अभी तक अप्राप्त की श्रेणी में है। ।
ज्ञान के आदान प्रदान एवम् संग्रहण के साधन उस समय न्यूनतम स्थिति में थे, । फलतः यह अवधारण रहती है कि लेखक ही ज्ञान के मूल में है। इसी धारण से भारतीय गणित के इतिहास में - महावीराचार्य - का नाम आदर के साथ लिया जाता है।
वक्रीय ज्यामितिक क्षेत्र के क्षेत्रफल की तकनीकी के तो वह जनक ही हैं। दीर्घवृत्त का क्षेत्रफल उन्होंने निकाला। यह वह ज्योमितिक क्षेत्र है जिस पर सभी ग्रह, उपग्रह गमन करते हैं, फलतः गणना ज्योतिष को नया आधार मिला। - ज्योतिष पटल - में गणना की इस विद्या के उपयोग से असहमत होना कठिन है।
गणितसार संग्रह - की पाण्डुलिपियाँ की कन्नड और तामिल टीकाएँ गणित-ग्रन्थ के रूप में हैं जो इनके - मैसूर - के आसपास के क्षेत्र के होने का आभास देती है। लेखन कार्यकाल, लगभग-धवला- का लेखन पूर्ण होने का समय-शक संवत् 735 - के ठीक बाद का है, अतः गणित पर जैन आमनाय में यह प्राचीनतम कार्य हो तो आश्चर्य नहीं।
'गणित सार संग्रह' में नौ अध्याय हैं।
प्रथम संज्ञाधिकार- यह परिभाषाओ को समर्पित है। जिनमे से कुछ हैं- क्षेत्र परिभाषा, काल परिभाषा, धान्य परिभाषा, स्वर्ण-रजित-लोह परिभाषा आदि
द्वितीय अधिकार, परिक्रम व्यवहार- इसमें चर्चा है गुणन, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, ।