Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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! है । देश के स्वर्णयुग की अवधि में कई साहसी समुद्र यात्राएं व्यापारियों द्वारा की जाती थीं। उनके विस्तृत विवरण प्राकृत साहित्य में उपलब्ध हैं। ये समुद्र - यात्राओं के वृतान्त भारत के गौरव को रेखांकित करते हैं कि उस समय विभिन्न देशों के साथ हमारे सांस्कृतिक सम्बन्ध थे। प्राकृत साहित्य के अध्ययन से हमें अनेक कलाओं, । हस्तशिल्प, औषधि - विज्ञान, ज्योतिष, भूगोल, धातुविज्ञान, रसायनविज्ञान आदि की प्रामाणिक जानकारी प्राप्त होती है । वास्तव में प्राकृत ग्रन्थों में उपलब्ध विभिन्न वृतांत आचार - शास्त्र, वनस्पति-शास्त्र, जीव-विज्ञान एवं राजनीति शास्त्र आदि के क्षेत्र में नवीन तथ्य प्रस्तुत करते हैं। इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि प्राकृत अध्ययन के भाषात्मक, सांस्कृतिक पक्ष को विभिन्न आयामों द्वारा आज उद्घाटित करने की आवश्यकता है । यह महत्त्वपूर्ण कार्य किसी समर्पित समुदाय एवं संस्थान द्वारा ही अच्छे ढंग से किया जा सकता है।
जनभाषा
प्राकृत भाषा अपने जन्म से ही जनसामान्य से जुड़ी हुई है । ध्वन्यात्मक और व्याकरणात्मक सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण प्राकृत भाषा लम्बे समय तक जन-सामान्य के बोल-चाल की भाषा रही है। प्राकृत की आदिम अवस्था का साहित्य या उसका बोल-चाल वाला स्वरूप तो हमारे सामने नहीं है, किन्तु वह जन-जन तक पैठी 1 हुई थी। महावीर बुद्ध तथा उनके चारों ओर दूर-दूर के विशाल जन-समूह ने मातृभाषा के रूप में प्राकृत भाषा ! का आश्रय लिया, जिसके परिणाम - स्वरूप दार्शनिक, आध्यात्मिक, सामाजिक आदि विविधताओं से परिपूर्ण
आगामिक एवं त्रिपिटक साहित्य के निर्माण की प्रेरणा मिली। इन महापुरुषों ने इसी प्राकृत भाषा के माध्यम से 1 तत्कालीन समाज के विभिन्न क्षेत्रों में क्रान्ति की ध्वजा लहरायी थी। इससे ज्ञात होता है कि तब प्राकृत मातृभाषा के रूप में दूर दूर के विशाल जनसमुदाय को आकर्षित करती रही होगी । जिस प्रकार वैदिक भाषा को आर्य संस्कृति की भाषा होने का गौरव प्राप्त है, उसी प्रकार प्राकृत भाषा को आगम भाषा एवं आर्य भाषा होने की प्रतिष्ठा प्राप्त है।
प्राकृत जन - भाषा के रूप में इतनी प्रतिष्ठित थी कि उसे सम्राट अशोक के समय में राज्यभाषा होने का गौरव प्राप्त हुआ और उसकी यह प्रतिष्ठा सैकड़ों वर्षो तक आगे बढ़ी है। अशोक ने भारत के विभिन्न भागों में जो राज्यादेश प्रचारित किये थे उसके लिए उसने दो सशक्त माध्यमों को चुना। एक तो उसने अपने समय की जनभाषा प्राकृत में इन अभिलेखों को तैयार कराया तकि वे जन-जन तक पहुँच सकें और दूसरे उसने उन्हें पत्थरों पर खुदवाया ताकि वे सदियों तक अहिंसा, सदाचार, समन्वय का संदेश दे सकें। इन दोनों माध्यमों ने । अशोक को अमर बना दिया है। देश के अन्य नरेशों ने भी प्राकृत में लेख एवं मुद्राएं अंकित करवायीं । ई. पू. 300 से लेकर 400 ईस्वी तक इन सात सौ वर्षो में लगभग दो हजार लेख प्राकृत में लिखे गये हैं । यह सामग्री प्राकृत भाषा के विकास-क्रम एवं महत्त्व के लिए ही उपयोगी नहीं हैं, अपितु भारतीय संस्कृति के इतिहास के लिए भी महत्त्वपूर्ण दस्तावेज हैं।
अभिव्यक्ति का माध्यम
प्राकृत भाषा क्रमशः विकास को प्राप्त हुई है। वैदिक युग में वह लोकभाषा थी । उसमें रूपों की बहुलता सरलीकरण की प्रवृत्ति थी। महावीर युग तक आते-आते प्राकृत ने अपने को इतना समृद्ध और सहज किया कि वह अध्यात्म और सदाचार की भाषा बन सकी। इससे प्राकृत के प्रचार-प्रसार में गति आयी । वह लोक के साथ-साथ साहित्य के धरातल को भी स्पर्श करने लगी । इसीलिए उसे राज्याश्रय और स्थायित्व प्राप्त हुआ। ईसा