Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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कर्म सिद्धान्त का वैज्ञानिक प्रतिपादन
___डॉ. नारायणलाल कछारा (उदयपुर) 1. कर्मवाद भारतीय जन मानस में यह धारणा है कि प्राणी मात्र को सुख और दुःख की जो अनुभूति होती है वह स्वयं के किये गये कर्म का ही प्रतिफल है। जो जैसा करता है वैसा ही फल प्राप्त करता है। कर्म से बंधा हुआ जीव अनादिकाल से नाना गतियों और योनियों में परिभ्रमण कर रहा है। वैज्ञानिक जगत में तथ्यों और घटनाओं की व्याख्या के लिए जो स्थान कार्य-कारण सिद्धान्त का है, जीवन दर्शन में वही स्थान कर्म सिद्धान्त का है। कर्म सिद्धान्त की प्रथम मान्यता है कि प्रत्येक क्रिया उसके परिणाम से जुड़ी है। उसका परवर्ती प्रभाव और परिणाम होता है। कर्म सिद्धान्त की दूसरी मान्यता यह है कि उस परिणाम की अनुभति वही व्यक्ति करता है जिसने पूर्ववर्ती क्रिया की है। पूर्ववर्ती क्रियाओं का कर्ता ही । उसके परिणाम को भोगता है। कोई प्राणी अन्य प्राणी के कर्मफल का अधिकारी नहीं होता । है। कर्म सिद्धान्त की तीसरी मान्यता है कि कर्म और उसके विपाक की यह परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है।
विश्व में विभिन्नता है। विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों के विभिन्न आचरण और व्यवहार हैं। इस विभिन्नता का कोई-न-कोई कारण होना चाहिए। विश्व-वैचित्र्य के कारणों की खोज करते हुए भिन्न-भिन्न विचारकों ने भिन्न-भिन्न मतों का प्रतिपादन किया है। कर्मवाद में काल आदि मान्यताओं का सुन्दर समन्वय करते हुए कहा गया है कि जैसे किसी कार्य की उत्पत्ति केवल एक ही कारण पर नहीं अपितु अनेक कारणों पर अवलम्बित होती है वैसे ही कर्म के साथ-साथ अन्य कारण भी विश्व-वैचित्र्य के कारण हैं। विश्ववैचित्र्य का मुख्य कारण कर्म है और उसके सहकारी कारण हैं काल, स्वभाव. नियति और पुरुषार्थ।
जैन दर्शन कर्म को पौद्गलिक मानता है। जो पुद्गल-परमाणु कर्म रूप में परिणत होते हैं, उन्हें कर्म वर्गणा कहते हैं और जो शरीर रूप में परिणत होते हैं उन्हें नो कर्म वर्गणा कहते हैं। शरीर पौदगलिक है, उसका कारण कर्म है, अतः कर्म भी पौद्गलिक है। कर्म पुद्गल कार्मण वर्गणा के रूप में समस्त लोकों में व्याप्त है और विशिष्ट अवस्था में जीवात्मा से संयोग करते हैं। राग-द्वेषादि से युक्त संसारी जीव में प्रति समय मन-वचन