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भास्तीय-ज्योतिष का पोषक जैन-ज्योतिष
363 बातों का वर्णन है। वेदाङ्गज्योतिष में पंचवर्षीय युगपर से उत्तरायण और दक्षिणायन के तिथि, नक्षत्र एवं दिनमान आदिका साधन किया गया है। इसके अनुसार युगका आरम्भ माघ शुक्ल प्रतिपदा के दिन सर्य और चन्द्रमा के धनिष्ठा नक्षत्र सहित क्रान्तिवृत्त पहुंचने पर माना गया है। वेदाङ्गज्योतिषका रचनाकाल कई शती ई.पू. माना जाता है। इसके रचनाकाल का पता लगाने के लिए विद्वानों ने जैन ज्योतिषको ही पृष्ठ भूमि स्वीकार किया है। वेदाङ्ग ज्योतिषपर उसके समकालीन षट्खण्डागममें उपलब्ध स्फुट ज्योतिष चर्चा, सूर्यप्रज्ञप्ति एवं ज्योतिषकरण्डक आदि जैन ज्योतिष ग्रन्थों का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। जैसाकि हिन्दुत्व के लेखकके “भारतीय ज्योतिष में यूनानियों की शैलीका प्रचार' विक्रमीय संवत से तीन सौ वर्ष पीछे हुआ। पर जैनों के मूलग्रन्थ अङ्गों में यवन ज्योतिषका कुछ भी आभास नहीं है। जिस प्रकार सनातनियों की वेदसंहिता में पञ्चवर्षात्मक युग है और कृतिका से नक्षत्र गणना है उसी प्रकार जैनों के अङ्ग ग्रन्थों में भी है, इससे उनकी प्राचीनता सिद्ध होती है। कथन से सिद्ध है। सूर्यप्रज्ञप्ति में पञ्चवर्षात्मक युगका उल्लेख करते हुए लिखा है- 'श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन सूर्य जिस समय अभिजित् नक्षत्र पर पहुंचता है उसी समय पञ्चवर्षीय युग प्रारंभ होता है।' अति प्राचीन फुटकर उपलब्ध षट्खण्डागम की ज्योतिष चर्चा से भी इसकी पुष्टि होती है। वेदाङ्गज्योतिष से पूर्व वैदिक ग्रन्थों में भी यही बात है। पञ्चवर्षात्मक युगका सर्व प्रथमोल्लेख जैन ज्योतिष में मिलता है। डॉ. श्यामशास्त्रीने वेदाङ्गज्योतिषकी भूमिका
किया है कि वेदाङ्गज्योतिषके विकासमें जैन ज्योतिष्का बड़ा भारी सहयोग है। बिना जैन ज्योतिष के अध्ययन के वेदाङ्ग ज्योतिषका अध्ययन अधूरा ही कहा जायेगा। प्राचीन भारतीय ज्योतिषमें जैनाचार्यों के सिद्धान्त अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण हैं।
जैन ज्योतिष में पौर्णमास्यान्त मास गणना ली गयी है, किन्तु याजुष-ज्योतिषमें दर्शान्त मास गणना स्वीकार की गयी है। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन काल में पौर्णमास्यान्त मास गणना ली जाती थी, किन्तु यवनों के प्रभाव से दर्शान्त मास गणना ली जाने लगी। बादमें चान्द्रमासके प्रभाव से पुनः भारतीय ज्योतिर्विदोंने पोर्णमस्त्यान्त मास गणना का प्रचार किया लेकिन यह पौर्णमास्यान्त मास गणना सर्वत्र प्रचलित न हो सकी। प्राचीन जैन ज्योतिषमें हेय पर्व तिथि का विवेचन करते हुए अवम के सम्बन्ध में बताया गया है कि एक सावन मासकी दिन संख्या ३० और चान्द्रमासकी दिन संख्या २६ + ३२ । ६२ है। सावन मास और चान्द्रमास का अन्तर अवम होता है अतः ३२-२९+३२/६२=३०/६२ अवम भाग हुआ, इस अवम की पूर्ति दो मास में होती है। अनुपात से एक दिनका अवमांश १/६२ आता है। यह सूर्यप्रज्ञप्ति सम्मत अवमांश वेदाङ्गज्योतिषमें भी है। वेदाङ्गज्योतिषकी रचना के अनन्तर कई शती तक इस मान्यतामें भारतीय ज्योतिषने कोई परिवर्तन नहीं किया लेकिन जैन ज्योतिष के उत्तरवर्ती ज्योतिषकरण्डक आदि ग्रन्थों में सूर्यप्रज्ञप्ति कालीन स्थूल अवमांशमें संशोधन एवं परिवर्तन मिलता है। प्रक्रिया निम्न प्रकार है इस काल में ३०/६२ की अपेक्षा ३१/६२ अवमांश माना गया है। इसी अवमांश परसे त्याज्य तिथि की अवस्था की गयी है। इससे वराहमिहिर भी प्रभावित हुए हैं उन्होंने पितामह के सिद्धांत का उल्लेख करते हुए लिखा है कि अतः स्पष्ट है कि अवम-तिथि क्षय सम्बन्धी प्रक्रियाका विकास जैनाचार्यों ने स्वतन्त्र रूप से किया। समय समय पर इस प्रक्रिया में संशोधन एवं परिवर्तन होते गये।
वेदाङ्गज्योतिष में पर्यों का ज्ञान कराने के लिए दिवसात्मक ध्रुवराशिका कथन किया गया है। यह प्रक्रिया गणित दृष्टि से अत्यन्त स्थूल है। जैनाचार्यों ने इसी प्रक्रिया को नक्षत्र रूपों में स्वीकार किया है। इनके मत से चन्द्र नक्षत्र योग का ज्ञान करने के लिए ध्रुवराशि का प्रतिपादन निम्न प्रकार हुआ है। 'चउबीससमं काऊण पमाणं सत्तसद्विमेव फलम्। इच्छापब्वेहिं गुणं काऊणं पज्जयालदा॥' अर्थात् ६७/१२४ x १८३०/६७ = ९१५/६२=१४+४७/६२=१४+९४/१२४ की पर्व ध्रुवराशि बतायी गयी है। तुलनात्मक दृष्टि से वेदाङ्गज्योतिष