Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti

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Page 424
________________ 379 इस विश्लेषण का प्रस्तुत प्रश्न के सन्दर्भ में महत्त्व यह जानना है कि क्रोध, राग-द्वेष आदि का कारण आत्मा एवं कर्म-वर्गणा का एक साथ विशेष रूप से विद्यमान होना है। राग-द्वेष न तो आत्मा के स्वभाव हैं और न अजीव कर्म-वर्गणा के । राग और आत्मा की भिन्नता या अभिन्नता के संबंध में जो जिज्ञासा हो सकती है उसका दूसरा प्रयोजन यह हो सकता है कि राग-द्वेष से निवृत्ति हेतु वर्तमान में विद्यमान राग-द्वेष का क्या करें? इस प्रयोजन से पूछे गए प्रश्न का उत्तर विस्तार से आचार्यों ने दिया है। आचार्य समझाते हैं कि अपने को शुद्ध एवं दर्शन-ज्ञान में परिपूर्ण मानकर अपनी ही आत्मा में स्थित रहने से राग-द्वेष क्षय को प्राप्त हो जाते हैं (देखिए समयसार गाथा 73 ) । सात तत्वों का निरूपण किया जाता है। वहां आस्रव तत्त्व एवं जीव त्तत्व की भिन्नताको रेखांकित करना भी उक्त तथ्य की पुष्टि करता है। जिसने राग-द्वेष यानी आस्रव तत्त्व को जीव तत्त्व में सम्मिलित किया है उसने आत्मा को नहीं समझा है व वह सम्यग्दृष्टि नहीं है । (देखिए समयसार गाथा 201, 202 ) । ज्ञानी रागद्वेष को अपना नहीं मानता है ( समयसार गाथा 199,200), व अज्ञानी अपना मानता है इस हेतु से भी यह कहा है कि ज्ञानी की आत्मा राग द्वेष से भिन्न व अज्ञानी के राग द्वेष अज्ञानी से अभिन्न होते हैं। (देखिए समयसार गाथा 210, 211, 278-281, 316, 318 ) । आधुनिक मनोवैज्ञानिक वेन डायर भी अपने पाठकों को सांसारिक दुःखों से निर्वृत्ति, आध्यात्मिक आनन्द एवं अच्छे स्वास्थ्य हेतु अपनी पुस्तक 'योअर सेक्रेड सेल्फ' (Your Sacred Self) में यह सुझाव देते हैं कि मस्तिष्क में आने वाले समस्त विकल्पों ( राग-द्वेष) को भी अपनी आत्मा से पृथक पदार्थ की तरह साक्षीरूप में देखने का अभ्यास करना चाहिए। उन्हीं के शब्दों में 1 - 'Try to view your thoughts as a component of your body/mind. Think of thoughts | as things. Things that you have the capacity to get outside of and observe. इसका हिन्दी भावानुवाद निम्नानुसार है : " आपके विचारों को आपके शरीर मन के हिस्से के रूप में देखने का प्रयास करो। ऐसी धारणा बनाओ कि ये विचार वस्तुओं की तरह हैं जिनसे आप बाहर आकर दर्शक की तरह देखने की सामर्थ्य रखते हो ।" इसी तथ्य का विस्तार करते हुए आगे शान्ति प्राप्ति की विधि बताते हुए वेन डायर यह भी लिखते हैं कि पहले । तो आप अपने विचारों के दृष्टा बनना चाहोगे, बाद में आप इस तरह के विचारों के दृष्टा वाले भाव के भी दृष्टा होना चाहोगे। उन्हीं के शब्दों से "First you want to watch your thoughts. Then you want to watch yourself watching your thoughts." प्रश्न 8 : जीव द्रव्य एवं पुद्गल द्रव्य के अतिरिक्त और कौन कौन द्रव्य जैन दर्शन में वर्णित किए गए है? उत्तर : कुल 6 प्रकार के द्रव्य वर्णित हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं: (1) जीव (2) पुद्गल (3) धर्म (4) अधर्म ( 5 ) आकाश (6) काल । ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि द्रव्यों की संख्या 6 न होकर द्रव्यों के प्रकार की संख्या 6 है। चूंकि प्रत्येक जीव एक द्रव्य है व प्रत्येक पुद्गल परमाणु एक द्रव्य है अतः द्रव्यों की कुल संख्या अनन्तानन्त होती है। सभी द्रव्यों को अवकाश देने की सामर्थ्य रखने वाला आकाश (Space) जैन दर्शन के अनुसार एक द्रव्य है । द्रव्य की परिभाषा के अनुसार यह भी शाश्वत एवं अनिर्मित या अकृत्रिम है। आकाश का एक भाग ऐसा

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