Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti

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Page 412
________________ भारतीय ज्योतिष का पोषक जैन 367 अधिक पड़ने लगता है, दूसरा कारण यह कहा जा सकता है कि उसकी किरणें समुद्र के अगाध जलपरसे आने से ठंडी पड़ जाती थी। उनमें क्रमशः जम्बूद्वीपकी ओर गहराई कम होने एवं स्थलभाग पास होनेसे सन्ताप अधिक बढ़ता जाता है। इसी कारण यहां गर्मी अधिक पड़ने लगती है। यहाँ तक कि सूर्य जब जम्बूद्वीपके भीतरी अन्तिम मार्ग पर पहुंचता है तब यहां पर सबसे अधिक गर्मी पड़ती है। उत्तरायण प्रारंभ मकर संक्रान्तिको और दक्षिणायन का प्रारंभ कर्क संक्रांतिको होता है। उत्तरायण के प्रारंभ में १२ मुहुर्त का दिन और १८ मुहुर्त की रात्रि होती है । दिनमानका प्रमाण निम्नप्रकार बताया है।" पर्व संख्याको १५ से गुणाकर तिथि संख्या जोड़ देना चाहिए, इस तिथि संख्या में से एक सौ बीस तिथिपर आने वाले अवमको घटाना चाहिए। इस शेषमें १८३ का भाग देकर जो शेष रहे उसे दूना कर ६ १ का भाग देना चाहिये जो लब्ध आवे उसे दक्षिणायन हो तो १८ मुहूर्त में से घटाने पर दिनमान और उत्तरायण हो तो १२ मुहूर्त्तमें जोड़ने पर दिनमान आता है। उदाहरणार्थ युग के आठ पर्व वीत जाने पर तृतीया के दिन दिनमान निकालना है अतः १५४८ = १२+३= १२३-१=१२२÷ १८३=०x१२२/१८३=१२२x२=२४४÷६१ = ४, दक्षिणायन होने से १८ - ४=१४ मुहूर्त्त दिनमानका प्रमाण हुआ । वेदाङ्गज्योतिषमें दिनमान सम्बन्धी यह प्रक्रिया नहीं मिलती है, उस कालमें केवल १८ - १२= ६÷१८३=१/६१ वृद्धि -हास रूप दिनमाक का प्रमाण साधारणानुपात द्वारा निकाला गया है। फलतः उपर्युक्त प्रक्रिया विकसित और परिष्कृत है इसका उत्तरकालीन पितामह के सिद्धान्त पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ा है। पितामहने जैन प्रक्रिया थोड़ा सा संशोधन एवं परिवर्द्धन करके उत्तरायण या दक्षिणायन के दिनादिमें जितने दिन व्यतीत हुए हों उनमें ७३२ जोड़ देना चाहिये फिर दूना करके ६ १ का भाग देने से जो लब्ध आये उसमें से १२ घटा देने पर दिनमान निकालना बताया है।'' पितामहका सिद्धान्त सूक्ष्म होकर भी जैन प्रक्रिया से स्पष्ट प्रभावित मालूम होता है । प्रकार, " नक्षत्रों के आकार सम्बन्धी उल्लेख जैन ज्योतिषकी अपनी विशेषता है । चन्द्रप्रज्ञप्ति में नक्षत्रों के आकार- 1 भोजन-वसन आदिका प्रतिपादन करते हुए बताया गया है कि अभिजित् नक्षत्र गोश्रृङ्ग, श्रवण नक्षत्र कपाट, घनिष्ठा नक्षत्र पक्षीके पिंजरा, शतभिषा नक्षत्र पुष्पकी राशि, पूर्वाभाद्रपद एवं उत्तराभाद्रापद अर्घबावड़ी, रेवती नक्षत्र कटे हुए अर्घ फल, अश्विनी नक्षत्र अश्वस्कन्ध, भारिणी नक्षत्र स्त्री की योनि, कृत्तिका नक्षत्र ग्राह, रोहणी नक्षत्र शकट, मृगशिरा नक्षत्र मृगमस्तक, आर्द्रा नक्षत्र रुधिर बिन्दु, पुनर्वसु नक्षत्र चूलिका, पुष्य नक्षत्र बढ़ते हुए चन्द्र, आश्लेषा नक्षत्र ध्वजा, मघा नक्षत्र प्राकार, पूर्वाफाल्गुनी एवं उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र अर्घ- पल्यङ्क, हस्त नक्षत्र हथेली, चित्रा नक्षत्र मउआके पुष्प, स्वाति नक्षत्र खीले, विशाखा नक्षत्र दामिनी, अनुराधा नक्षत्र एकावली, ज्येष्ठा नक्षत्र गजदन्त, मूल नक्षत्र बिच्छू, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र हस्तीकी चाल और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र सिंहके आकार का होता है। 2 यह नक्षत्रों की संस्थान सम्बन्धी प्रक्रिया वराहमिहिरके कालसे पूर्वकी है। इनके पूर्व कहीं भी नक्षत्रों के आकारकी प्रक्रियाका उल्लेख नहीं है। इस प्रकारके नक्षत्रों के संस्थान, आसन, शयन आदिके सिद्धान्त जैनाचार्यों के द्वारा निर्मित होकर उत्तरोत्तर पल्लवित और पुष्पित हुए हैं। प्राचीन भारतीय ज्योतिषके निम्न सिद्धान्त जैन- अजैनों के परस्पर सहयोग से विकसित हुए प्रतीत होते हैं। जैनाचार्योंने इन सिद्धान्तों में पांचवां, सातवां, आठवां, नौंवां, दसवां, ग्यारहवां और बारहवें सिद्धान्तों का मूलतः निरूपण किया है। प्राचीन जैन ज्योतिष ग्रन्थों में षट्खण्डागम सूत्र एवं टीकामें उपलब्ध फुटकर ज्योतिष चर्चा, सूर्यप्रज्ञप्ति, ज्योतिषकरण्डक, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति, अङ्गविज्जा, गणिविज्जा, आदि ग्रन्थ प्रधान हैं। ! इनके तुलनात्मक विश्लेषण से ये सिद्धान्त निकलते हैं

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