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पारसंहिता और पर्यावरण
जैन दर्शन में हिंसा के चार रूप माने गये हैं
१. संकल्पना (संकल्पी हिंसा ) - संकल्प या विचारपूर्वक हिंसा करना । यह आक्रमणात्मक हिंसा है। २. विरोधजा – स्वयं और दूसरे लोगों के जीवन एवं सत्वों (अधिकारों) के रक्षण के लिए विवशतावश हिंसा करना। यह सुरक्षात्मक हिंसा है।
३. उद्योगजा - आजीविका उपार्जन अर्थात् उद्योग एवं व्यवसाय के निमित्त होनेवाली हिंसा । यह उपार्जनात्मक हिंसा है।
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४. आरम्भजा - जीवन - निर्वाह के निमित्त होने वाली हिंसा - जैसे भोजन का पकाना। यह निर्वाहात्मक हिंसा है। जहाँ तक उद्योगजा और आरम्भजा हिंसा की बात है, एक गृहस्थ उससे नहीं बच सकता, क्योंकि जब तक 1 शरीर का मोह है, तब तक आजीविका का अर्जन और शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति होने ही आवश्यक है। यद्यपि इस स्तर पर मनुष्य अपने को त्रस प्राणियों की हिंसा से बचा सकता है। जैन धर्म में उद्योग-व्यवसाय एवं भरण-पोषण के लिए भी त्रस जीवों की हिंसा करने का निषेध है।
चाहे वेदों में 'पुमान् पुमांसं परिपातु विश्वतः' (ऋग्वेद, ६, ६५, १४) के रूप में एक दूसरे की सुरक्षा की बात कही गई हो अथवा 'मित्रास्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे' (यजुर्वेद, ३६, १८) के रूप में सर्वप्राणियों
प्रति मित्र-भाव की कामना की गई हो किंतु वेदों की यह अहिंसक चेतना भी मानवजाति तक ही सीमित रही ! है । मात्र इतना ही नहीं, वेदों में अनेक ऐसे प्रसंग है जिनमें शत्रु-वर्ग के विनाश के लिए प्रार्थनाएँ भी की गई हैं।
यज्ञों में पशुबलि स्वीकृत रही । 'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' का उद्घोष तो हुआ, लेकिन व्यावहारिक जीवन में वह मानव-प्राणी से अधिक उपर नहीं उठ सका। श्रमण परम्पराएँ इस दिशा में और आगे आयीं और उन्होंने अहिंसा की व्यावहारिकता का विकास समग्र प्राणी - जगत् तक करने का प्रयास किया।
वानस्पतिक और सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा को भी हिंसा माना जाने लगा था। मात्र इतना ही नहीं, मनसा, वाचा, कर्मणा और कृत, कारित और अनुमोदित के प्रकारभेदों से नवकोटिक अहिंसा का विचार प्रविष्ट हुआ, अर्थात् मन, वचन और शरीर से हिंसा नहीं करना, करवाना नहीं और करनेवाले का अनुमोदन भी नहीं करना । । उपासकदशांग सूत्रमें आनदादि धनाढ्य उपासक कैसी अनासक्तिसे संपत्ति का त्याग और परिमाण करते हैं ! इसके सुंदर अनुकरणीय दृष्टांत मिलते हैं। गृहस्थ श्रावक अपनी उपलब्ध संपत्ति के उपभोग के लिये अपने आप नियंत्रण रखता है।
गृहस्थ जीवन में कभी कभी हिंसा अपरिहार्य इर्यापथिक भी हो जाती है। तब भी संयम और इच्छाओं के 1 नियंत्रण से उससे विरत हो सकते हैं । आजीविका के बारे में पंद्रह कर्मदान के अतिचार बताये गये हैं जो पर्यावरणकी समतुला के लिए भी उपयोगी सिद्ध होते हैं । उपासकदशांग सूत्र में भी इसका उल्लेख मिलता है
कर्मादान
१. अंगारकर्म- लकड़ी से कोयले बनाकर बेचने का व्यवसाय,
२. वन कर्म - जंगलों को ठेके पर लेकर वृक्षों को काटने का व्यवसाय,
३. शकट कर्म - अनेक प्रकार के गाड़ी, गाड़े, मोटर, ट्रक, रेलवे के इन्जन आदि वाहन बनाकर बेचना,
४. भाटक कर्म - पशु तथा वाहन आदि किराये पर देना तथा बड़े बड़े काम आदि बनवाकर किराये पर देना,