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कि वातायन स
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बुन्देलखण्ड का जैन कला-वैभव
श्री नीरज जैन
जैन मूर्ति - कला में निहित लोक-मंगल की उस स्वस्ति भावना को समझने के लिये आराध्य को लेकर पूजा-विधि और पूजा-स्थानों के प्रति जैनों की मान्यता को समझना बहुत आवश्यक है। जैन धर्म ईश्वरत्व की इस प्रचलित मान्यता को स्वीकार नहीं करता कि हमारे सुख-दुख के लिये एक सर्वोच्च शक्ति के रूप में किसी ऐसे ईश्वर का अस्तित्व है, जिसमें विश्व के सृजन की, या उसके पालन की अभिलाषा और उत्सुकता हो और जो प्राणियों के कर्मों का लेखा-जोखा रखकर उनके भाग्य का निर्णय और निर्माण करता हो ।
जैनधर्म की आत्मा उसकी कला में स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित है। 'कला कला के लिये' इतना ही जिसका कार्यक्षेत्र हो, जैन कला ऐसी मानसिक विलास की वस्तु नहीं है । कला | मानव मन की अभिव्यक्ति के उस माध्यम का नाम है जो जलती ज्वाला में फूल खिलाने की शक्ति से सम्पन्न हो । विविधतापूर्ण और वैभवशालिनी होते हुये भी जैन कला सस्ती श्रृंगारिकता और सतहीपने की अश्लीलता से पूर्णतः मुक्त है, यही जैन कला की अपनी विशेषता है। कला सौन्दर्यबोध के आनन्द की सृष्टि तो करती है, पर वह अपने आप में संतुलित तथा सशक्त भी है। लोक-कल्याण की स्वस्तिमती भावना से वह भीतर बाहर ओतप्रोत है। उसके साथ गूढ़ता और रहस्य की जो एक प्रकार की अलौकिकता जुड़ी है, वह दर्शक के लिये आध्यात्मिक चिन्तन और उत्कृष्ट आत्मानुभूति की प्राप्ति में सहायक निमित्त बन जाती है।
जैन धर्म में ईस्वर की उपासना इसलिये की जाती है कि उपासक की सत्ता में पड़े हुये कर्मों की उत्कटता कम हो, उसके भवों में शुभता का संचरण हो और वह अपने में उन महान गुणों का विकास कर सके जो उसके आराध्य में पूर्णतः व्यक्त या विकसित हो गये हैं। उन गुणों का विकास ही आत्मा की चरम आध्यात्मिक परिणति है । दो हजार वर्ष पूर्व 1 उमास्वामी ने इस अभिप्राय को अपने ग्रन्थ में इस प्रकार निबद्ध किया था
मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्म-भूभृताम्,
ज्ञातारं विश्व तत्त्वानां, बंदे तद्गुण लब्धये ।
जो स्वयं मोक्षमार्ग के नेता हैं, कर्म रूपी पर्वतों को जिन्होंने चूर-चूर कर दिया है और