Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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स्मृतियों के वातायन से । बहोरीबंद के शान्तिनाथ की गणना भी उल्लेखनीय कला-कृतियों में की जाती है। ये मूर्तियां आकार-प्रकार में
मानवीय है, किन्तु हिमालय की तरह मानवोत्तर भी हैं। इसीलिये जन्म-मरण के चक्र के, शारीरिक चिन्ताओं के,
व्यक्तिगत व्यसनों-वासनाओं के, लौकिक तथा मानसिक कष्टों और समस्त आगत-अनागत भयों-आशंकाओं । के अत्यंत अभाव की भावना को भलीभाँति रूपायित करती रहती हैं। लगता है कि आचार्य वराह मिहिर ने ऐसी । ही किसी कलाकृति को देखकर अर्हन्त प्रतिमा का लक्षण लिखा होगा
आजानु-लम्ब-बाहुः श्रीवत्सांकः प्रशान्तमूर्तिश्च,
दिग्वासास्तुतरुणो रूपवाश्च कार्योऽर्हन्तादेवाः। दर्शन मात्र से चित्त को शान्ति देने वाली और मन की वृत्ति को सहज ही वैराग्य की ओर मोड़ने वाली सौम्य जैन प्रतिमाओं में निहित स्वस्ति भावना की संस्तुति करते हुये, अन्य तटस्थ कला समीक्षकों ने भी उनकी सार्थकता स्वीकार की है और लिखा है कि__ - विराट शान्ति, सहज भव्यता, परिपूर्ण काव्य-निरोध और कठोर आत्मानुशासन की सूचक उन प्रतिमाओं को देखकर किसी ऐसे महापुरुष का संकेत मिलता है जो अलौकिक, अद्वितीय और अनन्त सुख के अनुभव में निमग्न है तथा लौकिक विघ्न-बाधाओं से सर्वथा अविचलित हैं।
- मुक्त पुरुषों की वे प्रतिमाएं अनन्त शान्ति से ओतप्रोत अपूर्व ही. लगती हैं। - अपराजितबल और अक्षय शक्तियां मानो उनमें जीवन्त हो उठती हैं। मानवीय मूर्तियों के अतिरिक्त अलंकारिक सज्जा के सृजन में भी जैनों ने निराली ही शैली का आश्रय लिया। बहुत बार उत्कीर्ण और तक्षित कला-कृतियों में मानवः तत्त्व बहुत उभर कर रेखांकित हुआ है। चौबीस तीर्थंकरों के चौबीस शासन यक्षों की प्रतिमाएं भौतिक शक्तियों का बोध कराती हैं। उन सबकी शासन देवियाँ मानवसौन्दर्य का अतिरेक और मातृत्व का गौरव एक साथ प्रगट करती हैं। विद्या देवियाँ साधना की सीढ़ियों का प्रतीक बन जाती हैं और विद्याधर, किन्नर, दिक्पाल तथा इन्द्र, भगवान अहंत की त्रिलोकव्यापी महिमा की दुंदुभी बजाते दिखाई देते हैं। तीर्थंकर की माता के सोलह शुभ-स्वप्न हमारे ही उज्ज्वल भविष्य की हमें झांकी दिखाते हैं और अष्ट प्रातिहार्य तथा अष्ट मंगल-द्रव्य साधक को यह आश्वासन देते हैं कि उसका मार्ग शुभ है, जो शुभतर होता हुआ किसी अनजाने मोड़ पर शुद्ध की मंजिल तक पहुँचा देने में सक्षम है।
अर्हत प्रतिमा के परिकर में जब हम तीर्थंकर की ऐसी शुभंकर कल्पना अपने मन में सँजोकर देव-दर्शन और पूजन के लिये उनके समक्ष उपस्थित होते हैं तब हमें यह अनुभव होता है कि निश्चित ही हम किसी पाषाण-खण्ड या धातु के टुकड़े की पूजा नहीं कर रहे, वरन सभी सर्वोच्च गुणों से युक्त, साक्षात अपने आराध्य की ही पूजा कर रहे हैं। इस उपासना से आराधक को शक्ति और स्थिरता प्राप्त होती है। उसकी आत्मा का उत्कर्ष होता है और वह स्वयं उत्साहित होकर कर्मों से मुक्ति पाने के लिये प्रयत्नशील हो उठता है। इस प्रकार वह एक दिन अपनी शक्तियों का चरम विकास करके स्वयं भगवान बन जाता है।
प्रायः प्राचीन जैन मूर्तियाँ कला की कसौटी पर भी उत्कृष्ट ही ठहरती हैं। अपने इस रूप में वे साधक के लिये प्रेरणा का अतिरिक्त स्रोत बनती हैं। तीर्थंकर मूर्तियाँ, चाहे पद्मासन हों या कायोत्सर्ग मुद्रा में हों,वे सदा ध्यानस्थ पाई जाती हैं। उनकी सौम्य भाव-भंगिमा से शान्ति का अनन्त प्रवाह दर्शक को शीतलता प्रदान करता है। हम जब श्रद्धा पूर्वक किसी प्रतिमा पर अपना ध्यान केन्द्रित कर लेते हैं तब, कम से कम उन क्षणों में, हम मूर्ति की वीतरागता और परम शान्त भावना में लीन हो जाते हैं। उस क्षण एक ऐसी शान्ति हमें अनुभव होती है जो