Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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या सिद्धान्त का वैज्ञानिक प्रतिपाद
351 शरीर ही जैव फोटोन के माध्यम से शरीर की सम्पूर्ण क्रियाएं नियंत्रित करता है। तुलनात्मक अध्ययन से सिद्ध होता है कि जैन दर्शन का अध्यवसाय ही जैव प्रकाश है। ___ योग और कषाय के प्रभाव से विद्युत चुम्बकीय कार्मण शरीर में कम्पन्न होता है। कम्पन्न की आवृत्ति कषाय
और योग की प्रकृति पर निर्भर करती है। जिस आवृत्ति का कम्पन्न कार्मण शरीर में होता है उसी आवृत्ति की कार्मण वर्गणाएं आकर्षित होती हैं और सजातीय कर्म से श्लिष्ट हो जाती हैं। यही कर्म बंध है। आवृत्ति भेद से विभिन्न प्रकार के कर्मों का बंध होता है। भावों की तीव्रता और मंदता से कम्पन्न की शक्ति में भिन्नता होती है और तदनुसार बंध को प्राप्त होने वाली कर्म वर्गणाओं की संख्या में भिन्नता हो जाती है। इस प्रकार प्रकृति बंध और प्रदेश बंध की वैज्ञानिक व्याख्या हो जाती है। स्थिति बंध और अनुभाग बंध का नियंत्रण सम्भवतया आत्मा ही करती है, वह एक निष्पक्ष शास्ता की तरह कार्य करती है।
विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि वेदनीय कर्म., आयुष्य कर्म, नाम कर्म और गोत्र कर्म के विपाक से कोशिकाओं में जैव फोटोन का उत्सर्जन होता है जो शरीर में विभिन्न प्रकार की रासायनिक क्रियाओं को नियंत्रित करते हैं। आयुष्य कर्म के कारण कोशिका का विभाजन होता है और उससे शरीर जीवित रहता है। कोशिका जब रुग्ण हो जाती है तो वे जैव फोटोन के उत्सर्जन को प्रभावित करती है। अर्थात् व्यक्ति के रोग और वेदना का संबंध जैव फोटोन से है। नाम कर्म से शरीर की संरचना संभव होती है और इसमें जैव फोटोन की ही भूमिका रहती है। ___ उपरोक्त से स्पष्ट है कि कर्म सिद्धान्त का प्रतिपादन पूर्णतया वैज्ञानिवक है। कोशिका विभाजन, डी.एन.ए. की प्रकृति में परिवर्तन, जैव प्रकाश का उत्सर्जन आदि ऐसे विषय हैं जिनका सही कारण विज्ञान को ज्ञात नहीं, पंरतु जैन दर्शन में इनकी सटीक व्याख्या प्राप्त होती है। इसी प्रकार मनुष्य के भाव और व्यवहार के पीछे निहित कारणों का जहाँ मनोविज्ञान और विज्ञान स्पष्ट अवधारणा प्रस्तुत करने में असमर्थ है, जैन दर्शन का लेश्या सिद्धान्त इनकी सुस्पष्ट व्याख्या करता हैं।
6. उपसंहार
कर्म सिद्धान्त जैन दर्शन की विशिष्टता है। कर्मवाद की जिस प्रकार की वैज्ञानिक व्याख्या जैन दर्शन में । उपलब्ध होती है किसी अन्य दर्शन में नहीं होती। पिछली दो शताब्दी में आधुनिक विज्ञान का जो अभ्युदय हुआ उससे बहुत सी धार्मिक मान्यताएं और परंपराएं धराशायी हो गईं। परन्तु जैन दर्शन की मान्यताएँ, विशेष तौर से कर्मवाद जैसे गूढ़ सिद्धान्त की, आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर न केवल खरी सिद्ध हुई है बल्कि हमारे शरीर संबंधी क्रियाएं जो विज्ञान के लिए अभी भी पहेली बनी हुई हैं, उनका सटीक समाधान जैन दर्शन में प्राप्त होता है। कर्मबंध और कार्मण शरीर की संरचना ऐसे सूक्ष्म तथ्य हैं जिनको साधारण बुद्धि से सही-सही समझना कठिन है, परंतु वैज्ञानिक प्रयोगों से प्राप्त सूचना के आधार पर हम इस रहस्य को समझने में सक्षम हो जाते हैं। जैव प्रकाश की खोज से कर्म सिद्धान्त को जो एक ठोस वैज्ञानिक आधार मिला है वह जैन दर्शन को वैज्ञानिक ! जगत में भी श्रेष्ठ, सत्य तथा तथ्यात्मक सिद्ध करता है। वस्तुतः जैन दर्शन में ऐसे अनेक रहस्य उपलब्ध हैं जो आधुनिक विज्ञान का मार्गदर्शन कर सकते हैं और उसके विकास में सहायता कर सकते हैं।
संदर्भः 1. 'कर्म सिद्धान्त, अध्यात्म और विज्ञान', डॉ. नारायणलाल कछारा, 2004 2. 'कर्म सिद्धान्त और उसके वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक आयाम'
संपादन डॉ. नारायण लाल कछारा, 2005
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