Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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Sapane
मसान्त का वैज्ञानिक प्रतिपादन
349।। वहाँ सबसे पहले मस्तिष्क के माध्यम से चित्त का निर्माण करते हैं।
विज्ञान के अनुसार भी जिन जीवों के मस्तिष्क नहीं होता, मन नहीं होता, उनकी कोशिकाएँ ही सारा ज्ञान करती हैं। वनस्पति जीव जितने संवेदनशील होते हैं, मनुष्य उतने संवेदनशील नहीं होते। वनस्पति में अध्यवसाय का सीधा परिणाम होता है। इसलिए उन जीवों में जितनी पहचान, जितनी स्मृति और दूसरों के मनोभावों को जानने की जितनी क्षमता होती है, वैसी क्षमता सारे मनुष्यों में भी नहीं होती। __ लेश्या से भावित अध्यवसाय जब आगे बढ़ते हैं तो वे हमारे अंतःस्रावी ग्रंथितंत्र को प्रभावित करते हैं। इन ग्रंथियों का स्त्राव भी हमारे कर्मों के अनुभाग याने विपाक का परिणमन है। इस प्रकार पूर्व संचित कर्म का अनुभाग रसायन बनकर ग्रंथितंत्र के माध्यम से हार्मोन के रूप में प्रकट होता है। ये हार्मोन रक्त संचार तंत्र के द्वारा नाड़ी तंत्र और मस्तिष्क के सहयोग से हमारे अंतर्भाव, चिन्तन, आचार और व्यवहार को संचालित और नियंत्रित करते हैं। इस तरह ग्रंथितंत्र सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर के बीच 'ट्रांसफार्मर' परिवर्तन का काम करता है। अध्यवसाय की अपेक्षा से यह स्थूल है और शरीर के बीच की कड़ी है, जो हमारी चेतना के अति सूक्ष्म
और सूक्ष्म और अमूर्त आदेशों को भौतिक स्तर पर परिवर्तित कर देती है और मन एवं स्थूल शरीर तक पहुँचाती है। ___ भाव का सम्पर्क चित्त से होता है। चित्त इनसे कभी प्रभावित होता है कभी नहीं होता है। भाव मंद होता है और चित्त जागरूक होता है तो चित्त प्रभावित नहीं होता। चित्त अजागरूक होता है और भाव तीव्र होता है तो चित्र प्रभावित होता है। भावों से प्रभावित चित्त अपना स्वतंत्र निर्णय नहीं कर पाता। जिस दिशा में भाव प्रेरित करते हैं, उसी दिशा में प्रवृत्ति तंत्र का संचालन होता है और व्यक्ति वैसा ही आचरण व व्यवहार करने लगता है। भावों की मंदता में चित्त अप्रभावित रहता है और अपना स्वतंत्र निर्णय करता है। चित्त आचरण और व्यवहार को परिष्कृत करने में सक्षम हो जाता है। भावों की तीव्रता को कम करते, आचरण और व्यवहार को परिष्कृत करने के लिए लेश्या परिवर्तन का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है।
4. जैव विद्युत और जैव प्रकाश .
मनुष्य शरीर में स्नायुतंत्र, हृदय, मांशपेशियों आदि का कार्य विद्युत की सहायता से सम्पन्न होता है। शरीर के अन्दर व्याप्त जैव विद्युत की मात्रा पर ही व्यक्ति का उत्कर्ष एवं विकास निर्भर करता है। किसी व्यक्ति विशेष में पायी जैव विद्युत सामान्य व्यक्ति से अधिक होती है तब वह प्रतिभाशाली, विद्वान, मनीषी, प्रखर बुद्धि का धनी होता है, पर यदि किसी व्यक्ति में यह कम मात्रा में होती है, तब वह व्यक्ति मंद बुद्धि होता है और उसको ! कई प्रकार के मनोरोग घेर लेते हैं
भौतिक बिजली का जैव विद्युत में परिवर्तन असंभव है, परजैव विद्युत के साथ भौतिक बिजली का सम्मिश्रण बन सकता है। जड़ की तुलना में चेतन की जितनी श्रेष्ठता है उतना ही भौतिक और जैन विद्युत में अन्तर है। जैव विद्युत भौतिक विद्युत की अपेक्षा असंख्यक गुना अधिक बलशाली एवं प्रभावी है। जैव विद्युत पर नियंत्रण, परिशोधन एवं उसका संचय तथा केन्द्रीयकरण करने से मानव असामान्य शक्तियों का स्वामी बन सकता है। अभी तो वैज्ञानिकों ने केवल स्थूल एवं भौतिक विद्युत के चमत्कार जाने हैं और जिनको जानकर वे आश्चर्य चकित हैं। जिस दिन मानवी शरीर में विद्यमान इस जैव विद्युत शक्ति के अथाह भण्डार का पता लगेगा उस दिन अविज्ञान क्षेत्र के असंख्य आश्चर्यचकित रहस्योद्घाटन का क्रम प्रारम्भ हो जायगा।
विभिन्न प्रयोग परीक्षणों के आधार पर प्रमाणित किया जा चुका है कि काया के सूक्ष्म केन्द्रों के इर्द-गिर्द । प्रवाहमान विद्युतधारा ही सुखानुभूति का निमित्त कारण है। वैज्ञानिकों का कहना है कि वैद्युतीय प्रकम्पनोंके बिना किसी प्रकार की सुख संवेदना का अनुभव नहीं किया जा सकता।