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व संघर्ष सफलताकी कटवा
1871 भाई शामलदास कॉलेज में प्रोफेसर हैं। परंतु उनका नाम निर्भयराम बताते रहे। जबकि उन्हें निर्भयराम के नाम से कुछ ही लोग जानते थे। वे एन.बी. पंड्या के नामसे जाने जाते थे। पुलिस हमारे घर पर आई लेकिन बाहर से ही निर्भयराम पूछकर- और यह जानकर कि यहाँ कोई निर्भयराम नहीं रहता है- वापिस लौट गई। आखिर उन्हें रातभर पुलिस कस्टडी में रहना पड़ा। इधर हमलोग भी चिंतित थे कि वे लौटकर क्यों नहीं आये? क्योंकि उन्हें दूसरे दिन तो राजस्थान जाना था। मुझे शंका हुई कि कहीं भाँग में पकड़े तो नहीं गये। अच्छी बात यह हुई कि उन्होंने हमारा नाम नहीं बताया कि भांग हमसे ली है। दूसरे दिन दोपहर तक वे नहीं लौटे। हमलोग भी दोपहर का भोजन करके आराम करने की तैयारी कर रहे थे तभी एक पुलिस वाले ने आकर बताया कि वे उनके भाई पुलिस स्टेशन में बंद हैं। हमें बाद में पता चला कि उनके भाई को सुबह इस बात का ज्ञान हुआ कि उनके भाई को लोग एन.बी. पंड्या के नाम से जानते हैं। मैंने तुरंत बची हुई भांग गटर में फैंक दी। खैर! हमलोग पुलिस स्टेशन के लिए चले पर रास्ते में देखा कि पुलिस उन्हें हथकड़ी डालकर ले आ रही थी। हमलोगों को बड़ा धक्का
लगा। हमने पुलिस वालों को कुछ ले-देकर और समझाकर उनसे अलग से बात की और पूछा कि 'तुमने किसी । का नाम तो नहीं बता दिया?' और यह सावधान भी किया कि हमलोगो में से किसी का नाम नहीं लेना। हमने । कोर्ट में उनकी जमानत कराई।
___ कोर्ट में केस चला। पहली पेशी पर ही हमने अपने वकील द्वारा यह दलील प्रस्तुत कराई कि यह व्यक्ति । राजस्थान का है, अनजान है, इसे तो पता भी नहीं है कि भांग क्या होती है। यह तो साईकिल से आ रहा था एक | आदमी इस पुड़िया को फेंककर भागा था। गिरी हुई पुड़िया को देखकर इसने तो जिज्ञासा से इसे उठाया था। उल्टे
पुलिस वालों ने इससे कहा था कि यह भांग है तुम कहाँ से लाये? इस पर मेरे क्लाईन्ट ने अपनी अनभिज्ञता प्रस्तुत की है। परंतु पुलिसवालों ने इनपर विश्वास नहीं किया था। इस दलील से मजिस्ट्रेट साहब संतुष्ट हुए और | वे छूट गये। उसी समय मैंने प्रतिज्ञा की कि कभी किसी नशीले पदार्थ का सेवन नहीं करूँगा। मुखड़ा देख लो दर्पण में
यह वह ग्रंथ हैं जो गणधराचार्य कुन्थुसागरजीने पू. आचार्यश्री विद्यासागरजी के विरूद्ध पुस्तक रूप में छपवाकर प्रकाशित किया था। इसकी भी एक पृष्ठभूमि है। गणधराचार्य कुन्थुसागर का चातुर्मास हाटकेश्वर के । श्री पार्श्वनाथ दि. जैन मंदिर की वाड़ी में था। आ. कुन्थुसागरजी ने चातुर्मास के समय मुझसे यह वचन लिया था । कि चातुर्मास के दौरान जब भी मैं अहमदाबाद रहूँ प्रति रविवार के कार्यक्रम का आयोजन और सचालन करूँ।। मैंने इसका स्वीकार भी किया और पूरे चातुर्मास उनके कार्यक्रमों का आयोजन व संचालन किया। इससे पूर्व वे। ईडर में बिराजमान थे और आ. श्री विद्यासागरजी तारंगा में बिराजमान थे। आ. श्री विद्यासागरजी द्वारा कुछ । दीक्षायें संपन्न हुई थीं। आ. कुन्थुसागरजी ने इन दीक्षाओं के अनुमोदना हेतु अपने कुछ मुनियों को तारंगा भेजा । था। परंतु सारी गड़बड़ नमोस्तु प्रतिनमोस्तु को लेकर हुई। आ. विद्यासागरजी चूँकि आचार्य थे, वरिष्ठ थे। वे । प्रतिनमस्कार न भी करते तो कोई बात नहीं थी। परंतु संघ के अन्य मुनियों, ऐलक, क्षुल्लक यहाँ तक कि ब्रह्मचारियों ने भी इन मुनियों को नमस्कार-प्रतिनमस्कार नहीं किया। इससे बात बिगड़ गई। कुन्थुसागरजी जो आ. विद्यासागरजी के परम प्रशंसक थे उन्हें भी बुरा लगा। बस यहीं से वैमनस्य के बीज पनपने लगे। उसी समय आ. विद्यासागरजी का चातुर्मास महुवा में संपन्न हुआ। मेरा दुर्भाग्य रहा कि हाटकेश्वर के कार्यक्रम और अन्य व्यस्तताओं के कारण मैं पू. आ. श्री के चातुर्मास में नहीं जा सका।