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329|| । दार्शनिक सदैव सर्व के उपकार और कल्याण के लिए ही सोचना विचारता रहता है। अनेकों दार्शनिक एक | ही साथ एक ही क्षेत्र में रहकर अपना-अपना चिन्तन स्वतंत्र रूप से करते रहते हैं। उनमें कभी वैमनस्यता अथवा
विरोध नहीं होता है। दार्शनिक अपने विचार किसी पर थोपता नहीं है और न ही आसक्त होकर उनका प्रचार | करता है। दार्शनिक पक्षपात रहित होता है इसलिये अपना पक्ष प्रबल करने की उसकी इच्छा ही नहीं होती है। ! अन्य दूसरों का विरोध करने का भाव ही समाप्त हो जाता है। ___बैरभाव, युद्ध और झगड़े करना-कराना यह दार्शनिक का कृत्य नहीं होता है। ये कार्य तो राज्य-धन-मान
सत्ता आदि के लोभी, अपनी महत्वाकांक्षाओं के विस्तार के लिये करते व कराते रहते हैं। इसीलिए आज धर्म और | दर्शन जैसे परम पावन नाम का दुरूपयोग हो रहा है। आसक्त-मानी-लोभी और महत्वाकांक्षी लोगों ने शब्दों ! के अनेक अर्थों का ऐसा प्रयोग किया जिससे उनकी इच्छानुसार अर्थ प्रकाशित होने लगे। इससे जनमानस एक
पक्ष से ही चिपटकर रह गया और अन्य दूसरे पक्षों से द्वेष करने लगा। फिर शास्त्रार्थ किए गए और विसंवाद | बढ़ने लगा। अपने-अपने पक्ष को सबल करने के लिये तर्क कुतर्क होने लगे, फिर लाठियों, तलवारों, बंदूकों व | बमों का सहारा लिया जाने लगा। भय, आतंक, लूट, बलात्कार, अपहरण आदि भी होने लगे।
भला सोचे-विचारें, चिन्तन-मनन करें और ध्यान दें कि प्रभु, ईश्वर, भगवान राम, कृष्ण, दुर्गा अथवा गुरूनानक और यीशु व अल्लाह तथा खुदा के नाम पर क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा और तिरस्कार करना तथा अन्य दूसरों पर जुल्म कनरा तथा भयभीत करना और शोषण करना कहाँ तक न्याय संगत है? फिर क्रूरतापूर्वक हत्या करना-कराना तो घोर अपराध ही कहा जायेगा। धर्म के नाम पर और दर्शन के नाम पर ऐसा सोचना भी अपराध ही माना जायेगा। दर्शन तो आत्मा का शुद्ध, सहज, सरल, निर्मल स्वभाव है- अनन्त करूणा का सतत प्रवाह है- सदानन्द रूप है- अनन्त उल्लास से परिपूर्ण है और विशुद्ध ज्ञान मय है। स्व-पर को प्रकाशमान करने । वाला है।
आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व ईसा मसीह को, उनके कठोर हृदय प्रतिद्वंदियों ने क्रूस पर लटका कर उनके प्राण ले लिए। फिर भी यीशु ने यही प्रार्थना की कि 'हे परम पिता परमेश्वर इन हीन बुद्धि वालों को क्षमा करना।' यीशु ने प्राण हरण करने वालों को अपना दुश्मन नहीं माना और न ही उन पर क्रोध अथवा द्वेष किया। स्वयं उत्तम क्षमा धारण की और परमपिता परमेश्वर से भी उनको क्षमा कर देने का अनुरोध किया यह यीशु का । दर्शन है-चिन्नन है- सोच है- विचारधारा है।
पैगम्बर मुहम्मद साहब ने भी भूख प्यास सहकर अपरिग्रह व्रत साधा। किसी भी प्रकार के विनाश में उनका विश्वास नहीं था। सादा जीवन, उच्च विचार का संदेश जन-मानस को दिया। स्वेच्छापूर्वक जीवन-त्याग भी अपरिग्रह का उत्कृष्ट उदाहरण है। __कष्ट देने वालों और जान लेने वालों पर भी इतनी करूणा और उनके कल्याण की कामना। धन्य है यह सोच- यह विचार-यह श्रद्धा और निश्चय-यह आस्था-यह उसूल-यह नियम-यह रूल-यह निष्ठा और चरित्र। यही तप है- संयम है-निर्जरा है। यही तो विकारी भावों का शमन करना है और यही तो मुक्ति का सहज उपाय है। यही मोक्ष मार्ग है। यही आत्म हित है- अनंत करूणा का स्त्रोत है। यही सत्य का दर्शन है। आत्म-दर्शन है।
"ब्रह्मसूत्र' की टीका करने वाले सुप्रसिद्ध पंडित वाचस्पति थे। वाचस्पति के द्वारा रचित टीका “भामती" के माध्यम से ही ब्रह्मसूत्र का आशय मनःस्थ होता है। टीकाकार अपनी टीका लिखने में इतने डूबे रहे कि ।