Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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331 1 बेखबर और शरीर के शौक से भी बेखबर रहकर प्राणि मात्र की भलाई के लिये ही सोचता है और तदनुसार उपाय भी करता रहता है। फिर भी मौन रहता है और अन्य दूसरों के ताने भी सुनता है, और गालियाँ खाता है। कभी-कभी तो घोर कष्ट झेलने पड़ जाते हैं और शहादत यानी बलिदान भी देना पड़ता है।
लड़ना-झगड़ना-मारना - कष्ट देना और बलात अपनी बात मनवाना, जाति परिवर्तन कराना आदि हिंसक ! और क्लेशयुक्त काम जाति सम्प्रदाय और राज्य के नेताओं का है। प्रचार प्रसार की महत्वाकांक्षा और जय
पराजय की उत्तेजना तथा प्रदेश विजय की ललक ही राजाओं और नेताओं को हिंसा भड़काने को आसक्त करती रहती है। इसी प्रकार अहंकारी विद्वानों और पंडितों तथा मुल्ला मौलवियों और पादरियों ने भी धर्म प्रसार की 1 आड़ में खुलकर हिंसा भड़काई है। आज भी सारा विश्व जातीय झगड़ों में उलझ कर फड़फड़ा रहा है। विश्व की सभी जातियाँ और कौमें आज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये चिन्तित हो रही हैं। सारे धर्म बिलख रहे हैं और आतंकवादी और अत्याचारी उन्माद में पागल होकर अट्टास कर रहे हैं या फिर कुटिल मुस्कराहट के साथ दूसरों को मसलने और चूसने को लालायित हो रहे हैं। लूटना, बलात्कार करना, धोखा देना, बेवकूफ बनाना, भयभीत 1 कर शोषण करना, अत्याचार अनाचार करना, रोटी या काम के बदले मसलना चूसना आदि सब हिंसक कार्य हैं। अंतरंग कठोर होता है तभी ये सब काम हो पाते हैं। ये सब कार्य धर्म नहीं कराता है और न ही दार्शनिक इन कामों में सहयोगी होता है। दार्शनिक तो सदैव से बलि चढ़ता आया है । व्यर्थ किसी को दोष देना या बदनाम 1 करना यह स्याद्वादी अनेकांतवादी दार्शनिक का चिन्तन नहीं हो सकता ।
आज से लगभग पच्चीस सौ वर्ष पूर्व से ही महावीर, बुद्ध, ईसामसीह तथा पैगम्बर मुहम्मद जैसे महान दार्शनिकों और भगवान कहलाने योगविभूतियों का इस धरा पर अवतरण हुआ । भिन्न भिन्न क्षेत्रों में उनके अनुयायी बने और इस प्रकार उनका प्रसार प्रचार हुआ। कभी किसी दार्शनिक ने अपने विरोधी पर क्रोध नहीं किया, और न ही उससे युद्ध किया । और तो और इन दार्शनिकों ने कष्ट देने और प्राण लेने वालों तक के । कल्याण की प्रभु से कामना की और क्षमा भाव धारण कर कष्टों को सहा । इसीलिए ये पूज्य बने । सभी दार्शनिक ! स्याद्वादी रहे और अनेकांत में ही उन्होंने सभी पदार्थों का दर्शन किया, तभी वे सर्वोदयी बने । करोड़ों लोगों की भावनाओं को धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे सके।
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सभी प्रकार से सभी के विचारों और सभी के व्यवहारों पर सहानुभूति पूर्वक चिन्तन करने वाला ही अंत में ! सत्य बात का निश्चय कर पाता है। यदि शुरू के सोच में ही सत्य का आग्रह हो तो फिर इतने कष्ट झेलने और एकांत में रहकर चिन्तन मनन करने की उन्होंने क्यों आवश्यकता महसूस की? इस बात पर अनुयायियों को अवश्य सोचना चाहिए। अनुयायियों का अपरिपक्व सोच और अपनी बात को ही मान्यता देने का आग्रह ही एकांतवाद है। एकांतवाद का सत्य अपूर्ण रहता है और उस अपूर्ण को पूर्ण मानने का दुराग्रह ही कठोरता क्रोध ! और हिंसा को बढ़ाता है । अनेकांतवाद सभी की बात को सहनशील और सहिष्णु होकर विचारने की योग्यता प्रदान करता है । समन्वय करना सिखाता है। सभी के साथ मैत्रीभाव से रहने की प्रेरणा देता है। सभी अपने अपने ढंग से सोचने विचारने को अवकाश देता है।
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इस स्यात्वाद की कठिन तपस्या करने वालों को ही जैन दर्शन में-जैन सिद्धांत में - जैन धर्म में संत-साधुआचार्य आदि नाम दिया गया है। कहा भी है :
स्यात्वाद की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं। ही साधु - ज्ञानी जगत के दुःख समूह को हरते हैं ॥
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