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मागणी वागतास। | रस परिणाम शब्द भी आता है जिससे पदार्थो में भौतिक या रासायनिक परिवर्तन की स्वाभाविकता या
प्रयोगात्मकतः प्रकट होती है। प्रारम्भिक युगों में शास्त्रों में भौतिक परिवर्तन की ही प्रमुखता थी, उत्तरवर्ती काल में रासायनिक परिवर्तनों के भी अनेक उदाहरण मिलते हैं। आज के असंख्य कोटि और संख्या के परिवर्तन की तुलना में यह संख्या अपूर्ण ही है। ___ यह तो पता नहीं, सर्वजीववादी जैनों ने अजीव द्रव्य - विशेषकर, पुद्गल द्रव्य की मान्यता कब से स्वीकार की है, पर शास्त्रों में शस्त्रोपहति से निर्जीवकरण की चर्चा अवश्य है। पुद्गल शब्द से वर्तमान में अनंत अजीव एवं मूर्त द्रव्य तथा सशरीरी जीव का अर्थ लिया जाता है जिसका एक लक्षण रस भी है। फलतः रस शब्द के अर्थ में विस्तार हुआ हैं और अब पुद्गल परिणामों की अनेक शाखाएं हो गयी हैं: (1) औषध, विष एवं वाजीकरण (2) जीव रसायन (3) कार्बनिक और खाद्य (4) अकार्बनिक रसायन एवं (5) कृषि आदि। इनके कारण इसके विषयों की संख्या अगणित हो गई है जिनमें न्यूक्लीय रसायन भी एक है। जैन शास्त्रों में केवल कुछ ही शाखाओं का वर्णन बिखरे रूप में पाया जाता है जिनके माध्यम से जैन आचार्यों ने अनेक धार्मिक सिद्धांतों पर प्रकाश डाला है। फलतः हम रसायन विज्ञान को पुद्गलायन भी कह सकते हैं।
आगमोत्तर काल में रसायन विया आगमोत्तर काल के अनेक आचार्यों के ग्रंथो में रसायन के अन्तर्गत निम्न विषय पाए जाते हैं : (1) द्रव्यवाद (2) परमाणुवाद (3) स्कन्धबाद या अणुवाद (4) भौतिक व रासायनिक क्रियाएं और (5) कर्मवाद। हम इन पर ही यहाँ किंचित् चर्चा करेंगे। (1) द्रव्यवाद हमारा जीवन दो क्षेत्रो में कार्यरत हैं : (1) भौतिक एवं (2) आध्यात्मिक। दोनो ही क्षेत्रों की अपनी विविध और, संभवतः मूलभूत धारणाएं हैं। जैनों के अनुसार विश्व के दो भेद हैं, (1) लोक और (2) अलोक। शास्त्रों में इसकी भौतिक एवं आध्यात्मिक परिभाषा की गई है। भौतिक दृष्टि से (1) जहां तक जीवादि द्रव्य पाए जावें, (2) जहां 6 द्रव्य पाए जावें और (3) जहाँ जन्म, जरा और मरण होता हो, वह लोक है। आध्यात्मिक दृष्टि से। (1) जहाँ पाप पुण्य का फल देखा जाता है, (2) जहाँ द्रव्यों और पदार्थो को देखने वाला हो, (3) जहाँ स्व- । रूप का दृष्टा हो और (4) जो सर्वज्ञ दृष्ट हो वह लोक है। आध्यात्मिक अर्थ तो मुख्यतः आत्मा ही है, पर यहाँ भौतिक अर्थ ही अपेक्षित है। इस दृष्टि से द्रव्य शब्द महत्त्वपूर्ण है। द्रव्य शब्द की व्युत्पत्तिपरक एवं गुणपरक परिभाषाएँ पाई जाती हैं। 1. व्युत्पत्तिपरक द्रव्य वह है जो कच्ची लकड़ी के समान विभिन्न आकार प्रकार धारण करे- ।
2. गुणपरक परिभाषा में द्रव्य वह हैः (अ) जो अस्तित्ववान् हो या जिसकी सत्ता हो (र) जिसमें 11 सहज स्वभाव तथा 10 विशिष्ट
स्वभाव पाए जाते हों। (आलाप पद्धति) (ब) जो उत्पाद, व्यय एवं धौव्य गुणों का आधार हो। (ल) जो सामान्य-विशेषात्मक हो। (स) जो गुण और पर्याय युक्त हो
(व) जिसमें स्थिरता और गतिशीलता पाई जाती हो। ! (द) जो 8 सामान्य ओर 16 विशेष गुण वाला हो।
जैनों के लोक में छः भौतिक और सात या नौ आध्यात्मिक तत्त्व माने जाते हैं। भौतिक जगत के तत्त्वों में जीव ।