Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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प्रतिपादितनी
ली2 4311 | जीवन की उपलब्धि हेतु मंगल प्रवेश द्वार हैं। जिन पर क्रमशः आरोहण करता हुआ यह श्रावक श्रमण की
अन्तर्यात्रा का आत्म पुरुषार्थ प्राप्त कर लेता है। ___ वस्तुतः श्रावकाचारों में श्रावक की निम्नलिखित तिरेपन क्रियायें वर्णित हैं- आठ मूलगुण, बारह व्रत, बारह तप, समता परिणाम (कषायों की मंदता), ग्यारह प्रतिमायें, चार प्रकार के दान, जल छानना, रात्रिभोजन त्याग दर्शन, ज्ञान, चारित्र का यथाशक्ति पालन, इनसे श्रावक परम्परा या मोक्ष का अधिकारी बनकर मनुष्य जीवन को सफल बनाता है।
यद्यपि जैनों में इन अष्टगुणों के पालन की परम्परा प्रारम्भ से ही चली आ रही है, फिर भी प्रायः सभी श्रावकाचारों में बारम्बार इनके धारण हेतु इसलिए जोर दिया गया है, ताकि इनमें पालन की सुरीति अखण्डित | बनी रहे। यद्यपि यह भी सही है कि जैनाचार्य अपने ग्रन्थों में इनके परिपालन पर जोर न देते तो निश्चित ही जैनों । में इन दुर्व्यसनों का प्रवेश हो जाता। फिर भी आधुनिक सभ्यता से प्रभावित कुछ परिवारो में मद्य, मांस आदि का
प्रवेश चिंता का विषय है। यह जैन जीवनशैली के लिए कलंक है। मद्यपान और मांसाहार से होने वाली हिंसा और हानियों आदि के विवरण देने की यहाँ आवश्यकता नहीं है। क्योंकि इनसे असंख्य जीवों की हिंसा तो होती ही है, साथ ही शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, पारिवारिक संतुलन भी बिगड़ता है।
वस्तुतः धर्म के आचार और आध्यात्मिक पक्ष से तो सभी परिचित हैं, किन्तु धर्म का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है 'व्यावहारिक पक्ष' । इसी से हमारी जीवनशैली निर्मित होती है। इसका लोकनीति, राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति आदि सभी नीतियों से घनिष्ठ संबंध है। किसी भी धर्म के सिद्धान्त कितने ही श्रेष्ठ या आकर्षक क्यों न हों, यदि चारों ओर मानवीय सृष्टि के लिए वे सिद्धान्त व्यावहारिक न हों तो वे सारे मूल्य और सिद्धान्त निरर्थक, निरुपयोगी और निर्मूल्य सिद्ध हो जाते हैं। इसीलिए धार्मिक और नैतिक मूल्य वैज्ञानिक प्रगति के परिप्रेक्ष्य में हमारी जीवन शैली की कसौटी पर खड़े हैं। इसीलिए जैनाचार्यों ने स्पष्ट कर दिया कि जैनधर्म में बहते हुए पानी की तरह चिर-नवीनता है, वह किसी के पैरों के बेड़ियां नहीं बनता। आचार्य सोमदेव सूरि ने कह दिया कि
सर्व एव हि जैनानां लौकिको विधिः यत्र सम्यक्त्वहानिर्न, यत्र नो व्रतदूषणम्॥ अर्थात जैनों को सभी प्रकार के लौकिक रीति-रिवाज समयधर्म के अनसार मान्य हो सकते हैं. किन्त मात्र शर्त यही है कि किसी प्रकार भी सम्यक्त्व की हानि न हो और अहिंसा आदि व्रतों में दूषण भी न लगे। क्योंकि गृहस्थाश्रम में रहकर विविध गृहकार्य, जीविकोपार्जन आदि अनिवार्य हैं, किन्तु इन सबके करते सम्पूर्ण रूप से हिंसा से बचना कठिन होता है। अतः गृहस्थ को स्थूल-हिंसा अर्थात् संकल्पी हिंसा का त्यागी अर्थात् अहिंसा । अणुव्रती कहा गया है।
जैन जीवनशैली अहिंसाधिष्ठित मानी जाती है और अहिंसा की चर्चा यद्यपि हर युग में होती आयी है, लेकिन आज विश्व स्तर पर जैसी विषम परिस्थितियाँ बनी हुई हैं, वैसी पहले नहीं रहीं। वस्तुतः व्यवहार रूप में अहिंसा । का प्रारम्भ से लेकर अब तक हम स्वरूप-विश्लेषण करते हैं तो हम पाते हैं कि अहिंसा ने अपना मूल स्वरूप । रखते हुए हर युग में एक नवीन अर्थ पाया है और अपने को व्यापक बनाया है। इसीलिए अहिंसा सदा सुरक्षित । प्रासंगिक रही है। मानव इतिहास से ज्ञात होता है कि साम्राज्य वृद्धि के लिए युद्धों का सूत्रपात हुआ। स्वदेश रक्षा चाहने वालों ने तो विवशतया इसे अपनाया। फिर भी यदि मनुष्य का दृष्टिकोण बदल जाय और हिंसा के विकास में लगने वाली उसकी शक्ति अहिंसा के विकास में लग जाय तो राष्ट्र सुरक्षा तक के प्रश्न में अहिंसा किसी प्रकार अव्यावहारिक नहीं रह जाती।
अहिंसा का सही रूप में पालन तभी सम्भव है, जब इसके साथ सत्य, अस्तेय (अचौर्य), ब्रह्मचर्य और । अपरिग्रह- इन चार व्रतों का संतुलन बैठा हुआ हो। इसीलिए इस युग में जीवन मूल्यों को शाश्वत रखने के लिए ।