Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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म तियों का पता । देखने में भी आया है। इस प्रकार कर्म विज्ञान के साथ ही साथ आत्म विज्ञान भी विकसित किया गया था। जैसे | जैसे कर्म क्षयादि को प्राप्त किये जाते हैं यह देखने में आता है कि जीव अभूतपूर्व उपलब्धियों को प्राप्त होता चला
जाता है। ऐसा अन्वेषण अब आधुनिक वैज्ञानिक विकसित विधियों द्वारा अपेक्षित हो गया है। जीव के परिणामों में परिवर्तन के साथ साथ उससे संबंधित अनेक अवस्थाओं में जो परिवर्तन होते हैं उन्हें प्रामाणिक रूप से मापने के अनेक मूल्यवान यंत्र बनाये जा चुके हैं। उनके द्वारा आगम प्रणीत प्रमाणों पर शोध किये जाने के प्रयास हो सकते हैं। __इस प्रकार के पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों में जो परिवर्तन लाया जा सकता है, वह जीन्स में परिवर्तन लाने के समान प्रतीत होता है। अतः हम अपने संहनन आदि को अपने विशुद्धि रूप परिणामों के द्वारा बदल कर अपनी-अपनी आध्यात्मिक क्षमता बढ़ाने के रास्ते चुनने में सफल हो सकेंगे। वस्तुतः, शरीर विज्ञान के अनुसार जीव का स्वास्थ्य रसायनों से बनता बिगड़ता है जो न केवल भोजन पर निर्भर करते है वरन् अपने दुष्ट या अनुकम्पा स्वभाव, कठोरता या उदारता, क्रोध या क्षमा, मान या मार्दव, माया या सरलता, लोभ या संतोष पर निर्भर करते हैं। शरीर विज्ञान के अनुसार यह कहा जा सकता है कि जितनी कषायें आदि होंगी उतने ही रसायन इस जीव के मन वचन तथा काया पर प्रभाव कर्म रूप में छोड़ेंगे। फिर समय समय पर उनका विभिन्न प्रकार का फल निश्चित रूप से भोगने में आवेगा। ये सभी गणित के द्वारा स्थापित किये जाते हैं तथा प्रयोगों द्वारा पुष्ट किये जा सकते हैं। ___ मनोविज्ञान के अनुसार हमारे दो प्रकार के मस्तिष्क होते हैं। एक तो संस्कृत (conditioned) और दूसरा महान् (super)। इसी प्रकार एक चेतन (conscious) और अन्य अचेतन (unconscious) मन होता है। एक को मानव वा अन्य को पाश्विक भी कहा जाता है। इन्हें क्रमशः क्षायोपशमिक मस्तिष्क और औदयिक मस्तिष्क कहा जा सकता है। कर्म की एक प्रकृति का नाम है, ज्ञानावरणीय कर्म। यह कर्म ज्ञान पर आवरण रूप । रहता है। ज्ञानावरण के कारण ही मस्किष्क विकसित नहीं हो पाता है। अमनस्क जीवों (non-vertebra) में । पृष्ठरज्जु और मस्तिष्क नहीं होते है। मनस्क जीवों (vertebra) के पृष्ठरज्जु और मस्तिष्क होते हैं।
जैव प्रौद्योगिकी के अनुसार शरीर में ६०-७० खरब कोशिकाएँ हैं। इन कोशिकाओं में होते हैं गुण सूत्र। प्रत्येक गुण सूत्र १० हजार जीन्स से बनता है। वे मानों सारे संस्कार सूत्र हैं अथवा कर्म सत्य रूप हैं। पुनः शरीर में ४६ क्रोमोसोम होते हैं। नामकर्म के भी ६३ प्रकार होते हैं। उन पर जीन्स होते हैं। प्रत्येक जीन में साठ लाख आदेश लिखे हए होते हैं। तब प्रश्न होता है कि क्या हमारी चेतना जो कर्म फल चेतना, कर्म चेतना तथा ज्ञान । चेतना रूप आगम में कही गई है वह एक क्रोमोसोम और जीन से ही तो संबंधित नहीं है? एक जीव से दूसरे जीव के बीच जो अंतर दिखाई देता है उसका कारण कर्म है। इस प्रकार हम कर्म सिद्धान्त में विज्ञान का स्वरूप विशेष सीमा तक देख सकते हैं। यह हमें यह पथ दर्शाता है कि हम अभी से प्रयत्नशील हों कि एक ऐसा कर्म विज्ञान विषयक केन्द्र बनाया जावे जहां विद्वानों को न केवल उच्च संस्थागत ग्रन्थ संबंधी सुविधाएं उपलब्ध हों वरन् आधुनिकतम प्रायोगिक सूचनादि साधक यंत्रादि एवं पारस्परिक विनमयादि भी सुलभ हो सके। संदर्भ ग्रंथ: १. धवला टीका समन्वित षटखंडागम, सोलापुर
२. जयधवला टीका समन्वित कषाय प्राभृत, मथुरा ३. जीव तत्व प्रदीपिका टीका सहित गोम्मटसार, दिल्ली ४. संस्कृत टीका सहित लब्धिसार, अगास ५. तिलोय पण्णत्ती, सोलापुर