Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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3 = १, + 1...... इसके बाद श्रीधर ने भी वितत भिन्न के बारे में लिखा है।41 ___ इसका प्रयोग जैनाचार्यों ने भी किया है। जैन सिद्धान्त के ग्रन्थों में समस्त जीवराशि, गुण-स्थानों की जीवराशि, मार्गणाओं की जीवराशि का प्रमाण निकालने के लिए वितत भिन्न का प्रयोग धवलाकार ने नवीं सदी में सिद्धान्त निरूपण पूर्ववत किया है। धंवलाकार ने उपयुक्त जीव राशियों का प्रमाण निकालने के लिए अपने पूर्ववर्ती जैनाचार्यों के गणित सूत्रों को उद्धृत किया है। निश्चय ही गणित सूत्र 5वीं सदी से लेकर 8वीं सदी के बीच के समय के हैं। असंख्यातः, असंख्यातासंख्यात, अनन्त और अनन्तानन्त के आन्तरिक प्रभेदों और तारतम्यों का सूक्ष्म विवेचन वितत भिन्न के सिद्धान्तों के आलम्बन के बिना सम्भव नहीं था। द्विरूप वर्गचारा, धनाधनवर्गधारा तथा करणीगत वर्गित राशियों के वर्गमूल आनयन में भी वितत भिन्न का प्रयोग जैनाचार्यों ने किया है। ____धवलाटीका जिल्द तीन पृष्ठ 45-46 में धवलाकार ने लिखा है- “असंख्यातवाँ भाग अधिक सम्पूर्ण जीव राशि का सम्पूर्ण जीव राशि के उपरिम वर्ग में भाग देने पर असंख्यातवाँ भाग हीन सम्पूर्ण जीवराशि आती है। उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातवाँ भाग अधिक सम्पूर्ण राशि का सम्पूर्ण जीवराशि के उपरिम वर्ग में भाग देने पर जघन्य परीतानांतवाँ भाग हीन सम्पूर्ण जीवराशि आती है। अनन्तवाँ भाग अधिक सम्पूर्ण जीवराशि का सम्पूर्ण जीवराशि के उपरिमवर्ग में भाग देने पर अनन्तवाँ भाग हीन सम्पूर्ण जीवराशि आती है।"
भिन्न सम्बन्धी सूत्र- 'धवला' में भिन्न सम्बन्धी ऐसे अनेक रोचक सूत्र पाये जाते हैं, जो अन्य किसी गणितग्रन्थ में उपलब्ध नहीं हैं। वे सूत्र इस प्रकार हैं-2
wer mum
1. '
न
न
'म +1
2. यदि म = क और म. = क' हो, तो =
FI+I
3. यदि २ = क और च = क' हो, तो (क – क') + म' = कद = म
5. यदि क हो, तो त का, और मन का