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6. यदि अ
- = क और
8. यदि ज
9. यदि
अ
= क और
= क और
7. यदि ज = क और जैं, कोई दूसरा भिन्न हो, तो अ
ब
अ ब + स
= क + स हो, तो ब' = ब -:
क
अ
ब + स
10. यदि अ = क और
ब
= क
11. यदि _अ = क और,
ब
अ
ब + स
अ
ब - स
स
= क + स हो, तो स =
ब
स हो, तो स =
- और यदि
+1
जिसको हिन्दू गणितज्ञ इस प्रकार लिखते थे
a
C
e
HAA
b d f
ब. स क - स
= क' हो, तो क' = क -
ब. स
= क' हो, तो क' = क +
अथवा
क + स
अ
e
ঃ (1/2 + 1/4 + - - + ...)
ब'
क. स ब + स
क. स
ब - स
= क -
a
b
= क स हो, तो ब' = ब.
क
स
ये सब परिणाम 'धवला' के अन्तर्गत अवतरणों में पाये जाते हैं। ये अवतरण अर्धमागधी अथवा प्राकृत ग्रन्थों Ah हैं। अनुमान यही होता है कि वे सब किन्हीं गणित सम्बन्धी जैन ग्रन्थों के अथवा पूर्ववर्ती टीकाओं से लिये गए हैं। इस प्रकार वितत भिन्न का प्रयोग जैन आचार्यों ने ईस्वी सन् की 5वीं या 6वीं शताब्दी में किया है।
भारतीय अन्य गणित शास्त्रों में वितत भिन्न का प्रयोग सिद्धान्त प्रतिपादन के रूप में भास्कराचार्य के समय । से मिला है। यों तो आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त के गणित ग्रन्थों में भी इस भिन्न के बीज सूत्र वर्तमान हैं, परन्तु सिद्धान्त स्थिर कर विषय को व्यवस्थित ढंग से उपस्थित करने तथा उससे परिणाम निकालने की प्रक्रिया का उन ग्रन्थों में अभाव है। 'धवला टीका' में उद्धृत गाथाओं में वितत भिन्न के सिद्धान्त इतने सुव्यवस्थित हैं, जितने आज पाश्चात्य गणित के सम्पर्क से वितत भिन्न के सिद्धान्त स्थिर हुए हैं।
पाश्चात्य गणित जगत में 16वीं शताब्दी के पहले वितत भिन्न का प्रयोग नहीं किया गया था।
ब'
भिन्नों के प्रकार- प्रायः हिन्दू गणितज्ञों ने भिन्नों के चार प्रकार बतलाये हैं, परन्तु महावीराचार्य ने दो जातियाँ और बतायी हैं, इस प्रकार उनके अनुसार भिन्नों की कुल छः जातियाँ हो जाती हैं
1. भाग जाति - 43 ये भिन्नें निम्न स्वरूप की होती हैं
.C
H&R
d f
321
ब
e
-1