Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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म तियों के वातायने छायातलं संश्रयतः स्वतः स्यात्
कश्छायया याचितयात्मलामः॥38॥ कल्याण मंदिर स्तोत्र : श्री कुमुदचंद्राचार्य द्वारा विरचित कल्याण मंदिर स्तोत्र, भक्तों का कंठहार है। पार्श्वनाथ की स्तुति होने के कारण इसका नाम पार्श्वनाथ स्तोत्र भी है, परन्तु स्तोत्र कल्याण मंदिर शब्दों से । प्रारंभ होने के कारण यह स्तोत्र इसी नाम से अभिहित किया जाता है। कहा जाता है कि उज्जैयिनी में वाद-विवाद
में इस स्तोत्र के प्रभाव से एक अन्य देव की मूर्ति से पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हो गई थी। 44 श्लोकों में
निबद्ध यह स्तोत्र 'बसन्ततिलका छंद में लिखा गया है। स्तोत्र का प्रमुख आकर्षण भगवान पार्श्वनाथ के जन्म | जन्मान्तर के बैरी कमठ द्वारा उन पर किए गये भयंकर उपसर्ग के जीवन्त शब्दचित्र हैं
यद्गर्जदूर्जित-पनौष मदन भीम प्रश्यन्तहिन मुसल मांसुल घोरपारम्। दैत्येन मुक्तमय दुस्तर वारिदथे।
तेनैव तस्य जिन दुस्तर वारि कृत्यम्॥32॥ उपयुक्त शब्दों के चयन से भयानक रस की निष्पत्ति करने में कवि सफल हुआ है। ___ एकीभाव स्तोत्र : संस्कृत के जैन स्तोत्रकारों में आचार्य वादिराज का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। | वादिराज नाम नहीं पदवी है। चालुक्यराज जयसिंह की राजसभा में आपका विशिष्ट सम्मान था। कहा जाता है कि
निस्पृही आचार्य ध्यान में लीन थे। कुछ व्यक्तियों ने उन्हें कुष्ठग्रस्त देखकर राजसभा में जैन मुनियों का उपहास किया जिसे जैन धर्म प्रेमी श्रेष्ठिजन सहन नहीं कर सके। भावावेश में वे कह उठे- हमारे मुनिराज की काया तो स्वर्ण के समान होती है। राजा ने समस्त वृतान्त सुनकर आचार्य के दर्शन का विचार किया। श्रेष्ठियों ने आचार्य । को समस्त वस्तुस्थिति से परिचय कराकर उनसे धर्मरक्षा की प्रार्थना की। आचार्यश्री ने धर्म प्रभावना हेतु । एकीभाव स्तोत्र की रचना की जिससे उनका शरीर वास्तव में स्वर्ण सदृश हो गया। राजा ने मुनिराज के दर्शन कर । दुष्टों को दंड देने का संकल्प किया। किन्तु क्षमाशील आचार्य ने अपने शत्रुओं को भी राजा से क्षमा करवा दिया।
26 श्लोकों में रचित एकीभाव स्तोत्र में कवि का भक्त हृदय अडिग विश्वास के साथ आराध्यदेव के चरणों में समर्पित है। निम्न श्लोक भक्त हृदय की दृढ़ आस्था एवं अपार श्रद्धा भक्ति का सुंदर निदर्शन है
जन्माटव्यां कथमपि मया देव दीर्घ अमित्वा। प्राप्तवेयं तव नय कथा-स्फार पीयूष-वाणी। तस्या मध्ये हिमकर-हिम-यूह शीते नितान्त।
निर्मग्नं मान जहति कथं दुख-दावोपतापाः॥6॥ स्वयंभू स्तोत्र : आचार्य समन्तभद्र की अमरकृति स्वयंभू स्तोत्र जैन वाङ्मय का देदीप्यमान रत्न है। 144 श्लोकों में कवि ने चौबीस तीर्थंकरों का क्रम से पृथक्-पृथक् यशोगान किया है। कवि ने तीर्थंकरों की भक्त । वत्सलता, उनके अपार गुण समूह, गहन ज्ञान का गुणगान तो किया ही है। उसकी दृष्टि तीर्थंकरों के दिव्य । शारीरिक सौन्दर्य पर भी रीझी है। श्री चंद्रप्रभु भगवान के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कवि कहता है
चन्द्रप्रभ चन्द्रमरीचि गौरं। चन्द्रवितीयं जगतीव कान्तं।
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