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! किया था। वहीं वीरसेनाचार्य ने भी परिकर्म के आधार पर गणितीय युक्तियों द्वारा निश्चित प्रमाण तक पहुँचाने
के प्रयास किये थे। इस प्रकार श्रुत संवर्धन के अनेक रूप हमें आगम के अनेक स्थलों पर प्राप्त होते हैं। ___ आत्मा का किनारा तभी पकड़ में आता है जब कर्म प्रकृतियों के विनाश से होने वाले परिणामों में यह अमूर्त अनामी स्वसंवेद्य होने लगता है और जन्म, जरा, मृत्यु का चक्रव्यूह समाप्ति की ओर मुड़ जाता है। आत्मा के . स्वरूप का यथार्थ बोध होने के हेतु श्रुतावलम्बन अपरिहार्य रूप से आवश्यक है। ____ आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी (Modern Biotechonology).
जैव विज्ञान की आधुनिक शाखा जैव प्रौद्योगिकी में मानव जीनोम परियोजना (humangenomeproject). जैनेटिक अभियांत्रिकी (genetic engineering) तथा मानव क्लोनिंग (cloning) की प्रसिद्धि हो चुकी है। इसके अनुसंधानों के द्वारा जीवों के गुणसूत्रों (chromosomes) पर स्थित जीनों (genes) के कई गुणधर्मों (properties) का पता लगाया जा रहा है। जीवों के रोग-बुढ़ापा, अपराध, तथा भावनाओं एवं दुष्कृत्यों इत्यादि का परीक्षण कर नियंत्रण भी इन वंशाणुओं से होता है तथा इनके परिवर्तन के द्वारा मनोवांछित जीवन बनाने पर अन्वेषण हो रहा है। जहां डी.एन.ए से कोडान बनते हैं, कोडान से जीन समूह बनते हैं, जीनों के कोश से जीनोम बनते हैं, जो प्रत्येक जीव के भिन्न भिन्न होने के कारण उसकी पहिचान करने में सहायक होते हैं। ये सभी जीव कोशिकाओं या निषेकों में पाये जाते हैं। __मनोविज्ञान में वैयक्तिक भिन्नता का अध्ययन आनुवांशिकता (heredity) और परिवेश (environ
ment) के आधार पर किया जाता है। जैवविज्ञान के अनुसार जीवन का प्रारम्भ माता के डिम्ब और पिता के शुक्राणु के संयोग से होता है। व्यक्ति के आनुवांशिक गुणों का निर्धारण उसकी इकाई कोशिकाओं के गुणसूत्रों के द्वारा होता है। उनमें स्थित जीन ही माता पिता के आनुवांशिक गुणों के वाहक होते हैं। जीन की वैज्ञानिक व्याख्या के पश्चात् ऐसा प्रतीत होता है कि उसका सम्बन्ध नामकर्म से है। मनोविज्ञान ने शारीरिक और मानसिक विलक्षणताओं की व्याख्या आनुवांशिकता और परिवेश के आधार पर की है, पर उससे अनेक प्रश्न उत्तरित नहीं होते। मनोविज्ञान के क्षेत्र में जीवन का प्रारंभ और जीव का भेद अभी स्पष्ट नहीं है। आनुवांशिकता का संबंध जीवन से है, कर्म का संबंध जीव से है तथा जीवन से भी है। कर्म की दस अवस्थाओं का विवरण अत्यंत विशाल । है जिस तक आज के जीवविज्ञान को पहुंचने में समय लगेगा।
'जिनेटिक इंजीनियरिंग में वैज्ञानिकों ने जीन को परिवर्तित करने की खोज कर ली है। जानवरों की नस्ल को सुधारने में सफलता प्राप्त कर ली है। इसके अतिरिक्त नाड़ी संस्थान और हार्मोन ग्रंथियों के स्रावों में परिवर्तन कर मनुष्य के व्यक्तित्व में परिवर्तन करना सीख लिया है। कर्म संक्रमण का सिद्धांत इसमें प्रयुक्त होता है। कर्म की अवस्थाओं में परिवर्तन का कारण जीव के परिणामों की विशेषता लेकर होता है जो प्रयोगों की हर कसौटी । पर खरा उतरता देखा गया है। जीव के भाव शुभ अशुभ तथा विशुद्ध की श्रेणियों में रखे जा सकते हैं। जीव के पांच प्रकार के भाव होते हैं जिनमें से चार प्रकार के भाव कर्म की विभिन्न अवस्थाओं के कारण होते देखे गये हैं। ये कर्म के क्षय, क्षयोपशम, उपशम आदि से होते हैं। पांचवां भाव पारिणामिक भाव है जो कर्म की अपेक्षा नहीं । रखता है और जीव की स्वतंत्र परिणति का प्रतीक है।
अतः हमें देखना है कि जीव के जीवन में कर्म ही सब कुछ नहीं होते हैं बल्कि आनुवांशिकता, परिस्थिति, वातावरण, भौगोलिकता, पर्यावरण आदि निमित्त भी जीव के स्वभाव एवं व्यवहार पर उसकी योग्यतानुसार असर डाल सकते हैं। जीव अपने परिणाम पुरुषार्थ के द्वारा कर्म की अवस्थाओं में परिवर्तन ला सकता है ऐसा
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