Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
View full book text
________________
aurung
यो में विज्ञान
| 3031 इसी प्रकार कर्म थ्योरी भी कुछ प्रमुख आधारभूत तत्त्वों की स्थापना के आधार पर विकसित की गयी। क्या ये आधार भूत तत्त्व अन्य थ्योरियों (विकसित सिद्धान्तों) के समान गणितीय स्वतः सिद्ध अभिधारणाओं (postulates) रूप में है? यदि हाँ तो वे क्या हैं, इसका अनुसंधान तथा ऐसे ही अनेक तथ्यों पर अनुसन्धान करना आवश्यक हो जाता है। ऐसे ही अन्य तथ्य सामने लाना श्रुत संवर्द्धन में सहायक हो सकेगा।
इसी प्रकार संवाद का आधारभूत सिद्धान्त (principle of correspondence) भी अनेक प्रकार के प्रकृति के छिपे रहस्यों को उद्घाटित करने में सहायक सिद्ध हुआ है। जो वस्तुएं हमें दृष्ट रूप में सामने अवलोकित होती हैं उनके चाल चलन के गणितीय समीकरण सरलता से बनाये जा सकते हैं किन्तु जो वस्तुएं अदृष्ट रूप से अपनी चालें चलती हैं उनके गणितीय समीकरण बना लेना असाधारण कार्य है। सूक्ष्मतम वस्तुएं तो आंखों से ओझल रहती ही हैं किन्तु उनके चाल चलन का संवाद दृष्ट वस्तुओं के चाल चलन से स्थापित करने पर संभावनाओं रूप गणितीय समीकरण निकाले गये। उन्हें प्रयोग में लाने पर सिद्ध हुआकि दोनों के चाल चलन में अधिक अन्तर नहीं है। इसी आधार को लेकर आकाश में चलने वाले ग्रहों आदि के पिण्डों के चाल चलन का संवाद अदृष्ट स्कन्धों के भीतर चलने वाले मूलभूत कणों की चाल ढाल से स्थापित किया गया। इसमें सफलता मिलने पर इस प्रकार के संवाद को आगे बढाया गया। उदाहरणार्थ, डी.एन.ए. और आर.एन.ए. के बनने वाले आकारों का स्वरूप हीलियाकल उदयीभूत सूर्य आदि अथवा कुछ प्रकार के यही आकार लेने वाले कुछ पौधों में देखा गया। यही रूप जैनागम के तिलोयपण्णत्ती आदि में वर्णित सूर्यादि ज्योतिष पिंडों में देखा गया। क्या फिर कर्म प्रकृतियों में ऐसी ही चाल चलन की विशेषता होती होंगी? क्या वे इन घातिया व अघातिया रूप में अपनी पहिचान डी.एन.ए. वा आर.एन.ए. के रूप में कर दे सकती हैं? ये सभी गणितीय समीकरण प्रकृति की वस्तुओं के चाल चलन में असाधारण रूप से समान दृष्टिगत हुए हैं और जिनके आधार पर जीवन के अनेक रहस्यों को खोला जाने लगा है। कर्म सिद्धान्त में जो विकास प्राचीन काल में हो चुका था वह गणितमय था जो आज के जीव विज्ञान वा प्राद्यौगिकी से किसी भी तुलना में पीछे नहीं है। उनकी प्रयोगशाला उनका स्वयं का जीवन ही था।
श्रुत संवर्द्धन के लिए एक और अहम् बिन्दु पाँचवा है जो कर्म के अल्पतम मूलभूत सिद्धान्त को लेकर है इसके विज्ञान को (principle of least action) कहते हैं। सबसे पहिले तो चारसौ वर्षों से यह सिद्धान्त अनेक रूप धारण करता रहा है तथा कर्म (action) को गणितीय रूप से परिभाषित किया जाता रहा है। कर्म जो किसी भी प्रकार का हो, व्यापक से भी व्यापक रूप में गणित द्वारा परिभाषित किया गया हो- या तो कम से कम हो सकता है, या अधिक से अधिक हो सकता है, जो बीच का मान भी धारण कर सकता है तथा काल की अवधि में बंधा हुआ हो। इस प्रकार कर्म (action) को आइंस्टाइन ने भी गणित रूप से, अद्वितीय रूप से आकाशकाल की वक्रता रूप में, संयुक्त रूप में, पुद्गल की उपस्थिति व अनुपस्थिति रूप में परिभाषित किया था। उन्होंने भी इसमें विचलनीय (variational) सिद्धान्त या कम से कम और अधिक से अधिक रूप के मूलभूत सिद्धान्त का उपयोग किया था। इसके प्रयोग से न केवल अणु शक्ति विस्फोट सम्बन्धी समीकरण सामने आये थे वरन् गुरुत्वाकर्षण सम्बन्धी तीन प्रयोगों से उनके द्वारा प्राप्त समीकरण विश्व के अनेक वैज्ञानिकों ने सत्यापित कर । दिये थे- प्रयोगों के माध्यम द्वारा। आइंस्टाइन ने मेट्रिक को व्यापक बनाकर इस कर्म (action) में एक और ! बल, विद्युतचुम्बकीय निमित्त को जोड़ना चाहा था, किन्तु वह इसमें सफल नहीं हो सके थे। दूसरी ओर से , वैज्ञानिकों की दूसरी टोली ने विद्युतचुम्बकीय बल में नाभिकीय तीव्र एवं मंद बलों या निमित्त क्षेत्रों की संयुत्ति में इसी मूलभूत सिद्धान्त (principle) का प्रयोग कर सफलता प्राप्त की, सूक्ष्म जगत के रहस्य को उद्घाटित ।