Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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301 | २३०० वर्ष पूर्व हुए आचार्य भद्रबाहु, जो चौदह पूर्वी थे तथा आचार्य प्रभाचन्द्र जो पूर्व में मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त
थे, जिन्होंने आचार्य भद्रबाहु से जैन धर्म में दीक्षित होकर अपने प्राण प्रिय गुरुदेव की समाधि सेवा में बारह वर्ष
चन्द्रगिरि पर घोर तपस्या की थी, जिनसे उन्होंने भी उनसे दस पूर्व का ज्ञान प्राप्त किया था। इन सभीके इतिहास । के पृष्ठों में लौटना होगा। अष्टांग महानिमित्त के धारी आचार्य भद्रबाहु तथा दीक्षा के पूर्व अप्रतिम रणक्षेत्रादि के
ज्ञानादि में परम कुशल रहे प्रभाचन्द्राचार्य ने ये बारह वर्ष मात्र संरक्षण में नहीं वरन् श्रुत संवर्द्धन में बिताये होंगे। निश्चित ही उन्होंने अग्रायणी पूर्व, ज्ञान प्रवाद पूर्व आदि पूर्वो में निबद्ध कर्म सिद्धान्त को श्रुत रूप से श्रुत संवर्द्धन हेतु लिपि रूप में लाने का प्रयास किया होगा जिससे अर्थ एवं उनकी संदृष्टियाँ सामने लाने हेतु श्रुत का स्थान लिपिबद्ध ग्रंथों ने लिया होगा और बाद में ये लिपियां घनाक्षरी एवं हीनाक्षरी अथवा ब्राह्मी एवं सुन्दरी के कथानकों में किंवदन्तियों का रूप लेती चली गई होंगी। सर्व प्रथम अशोक के शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे दृष्टिगत हैं जिनसे पूर्व भारत में कोई भी शिलालेख उपलब्ध नहीं है। अशोक सम्राट, मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के पौत्र थे जिन्हें यह लिपि उनसे विरासत में आविष्कृत होने पर ही प्राप्त हुई होगी। चन्द्रगुप्त काल में मेगास्थनीज, यूनानी दूत यही सूचना लेकर वापिस लौटा कि भारतीयों के पास अक्षर नहीं हैं और यहाँ के राजकीय एवं प्रजा के कार्य स्मृति से ही चलते हैं। सिकन्दर के उत्तराधिकारी राज्य वंश जो भारत की सुदूर उत्तरी सीमाओं पर अधिकार किये बैठे थे, उनके सिक्कों में भी एक ओर यूनानी लिपि तथा वही विषय वस्त दसरी ओर ब्राह्मी लिपि में थी. जिसके आधार पर ब्रिटिश राज्य काल में यहाँ के शिलालेख पढ़े जाने लगे। अतः कर्म सिद्धान्त को समझने हेतु घनाक्षरी एवं हीनाक्षरी में लिपिबद्ध श्रुत हृदयंगम करने के लिए भाषा के साथ साथ उनकी गणित संदृष्टियों का आलम्बन आवश्यक है, श्रुतसंवर्धन हेतु अर्थ और अर्थ संदृष्टियों का पठन पाठन के साथ उनका रहस्यमयी निर्वचन आदि विद्वानों के लिए नितान्त अपरिहार्य हैं। इसी ज्ञान का प्रायोगिक रूप ध्यान है जो कर्म की होली जलाने के लिए । अग्नि स्वरूप हो जाता है। दूसरा बिन्दु वह है जहाँ हम आचार्य कुन्दकुन्द का महत्त्व निम्न लिखित मंगलाचरण रूप में पाते हैं
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी।
___ मंगलं कुन्दकुन्दायो जैन धर्मोऽस्तु मंगलम्॥ गौतम गणधर के प्रायः ६०० वर्ष पश्चात् हुए आचार्य कुन्दकुन्द का उनके पश्चात् सीधे आना उनकी गणितीय ज्ञान के सहित परिकर्म नामक षट्खण्डागमके प्रथम तीन खण्डों पर लिखी हुई हो सकती है। यह अब उपलब्ध नहीं है, उसके उद्धरण वीरसेनाचार्य की टीकामें मिलते हैं। नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने भी धाराओं का विवरण त्रिलोकसार में देते हुए उनके विशेष विस्तार से अध्ययन हेतु बृहद् धारा परिकर्म का उल्लेख किया है। । उनके पूर्व के आगम ग्रंथों में, भगवन्त भूतबलि के महाबन्ध में भी शून्य का दसार्हा पद्धति में उपयोग दृष्ट नहीं । है। उनके बाद के ग्रंथों में ही कर्म सिद्धान्त ग्रंथों में आने वाली बड़ी संख्याएं दसाऱ्या पद्धति में प्राप्य हैं। अतः यह । निश्चित होता है कि कुन्दकुन्दाचार्य ने बड़ी संख्याओं को लिखने हेतु इस पद्धति का आविष्कार किया होगा।
श्रुत संवर्द्धन का तीसरा बिन्दु कर्म सिद्धान्त में प्रयुक्त गणितीय सूत्र हैं जो 'तिलोयपण्णत्ती' व 'त्रिलोकसार' नामक करणानुयोग के ग्रंथों में उपलब्ध हैं तथा जिन पर भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी ने प्रोजेक्ट द्वारा उनका अध्ययनादि १६६२-१६६५ में फेलोशिप द्वारा करवाया है। इनका प्रथम दो भागों में 'Exact Sciences in the Karma Antiquity' ग्रंथमाला रूप से श्री ब्राह्मी सुन्दरी प्रस्थाश्रम द्वारा प्रकाशन ही में कराया गया ह। तीसरा भाग प्रेस में है। इनमें सभी मूल गाथाओं के साथ गणितीय गाथाओं का पूर्ण विवरण ।