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वामानायलावा
26311 | लेते हैं। इन गाथाओं में आ. कुन्दकुन्द ने कहा है कि ज्ञानी पुद्गल द्रव्य के पर्याय रूप कर्मों को, अपने परिणामों
को और पुदगल कर्म के फलों को जानता हुआ भी खलु (निश्चय से) पर द्रव्य के पर्यायों में न तो परिणमन करता है, न उसमें किसी को ग्रहण करता है और उसमें उत्पन्न भी नहीं होता है - इस प्रकार उस (परद्रव्य पुद्गल के परिणमन या पर्याय) के साथ ज्ञानी जीव का कर्तृ-कर्म भाव नहीं है अर्थात् जीव और पुद्गल कर्म के परिणमन (पर्याय) अलग अलग हैं।
इसकी टीका में आ. अमृतचन्द्र कहते हैं: जिस परिणाम रूप आप परिणमें, वह प्राप्य, किसी परद्रव्य की पर्याय को ग्रहण करे वह विकाररूप होने से विकार्य और किसी को उत्पन्न करे, वह निवृत्य। ऐसे तीनों तरह से चेतन जीव अपने से भिन्न पुद्गल द्रव्यरूप न तो परिणमन करता है, न पुद्गल को ग्रङण करता है और न ही पुद्गल को उत्पन्न करता है। इन प्राप्य, विकार्य और निर्वृत्य को क्रमबद्धपर्याय का जामा पहनाने दिखें कानजी स्वामी लिखित पुस्तक, पृष्ठ 6) की कानजी स्वामी ने निरर्थक चेष्टा की है।
(3) क्रमबद्धपर्याय की पुष्टि में तीसरा संदर्भ जो कानजी स्वामी और भारिल्ल देते हैं वह आ. कुन्दकुन्द लिखित प्रवचनसार की गाथा 2.7 है। इसमें कहा है कि द्रव्य के अपने गुण पर्याय रूप परिणमने को स्वभाव कहते हैं और वह स्वभाव उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य सहित है। इसकी टीका में आ. अमृतचन्द्र कहते हैं कि अपने पूर्वपूर्व के परिणामों की अपेक्षा द्रव्य के आगे आगे के परिणाम उत्पन्न होते हैं। उत्तर उत्तर (आगे-आगे के) परिणामों (पर्यायों) की अपेक्षा द्रव्य के पर्व पर्व के परिणाम व्यय रूप हैं, और द्रव्य प्रवाह (प्रवाह क्रम से प्रवृत्ति करने) की अपेक्षा ध्रुव हैं। इस सम्बन्ध में मोतियों के हार का उदाहरण दिया है। इस प्रवाह क्रम शब्द को कानजी स्वामी और भारिल्ल ने भ्रम से क्रमबद्ध पर्याय सिद्धान्त का पोषक (पुष्टि करनेवाला) समझ लिया है। (कानजी स्वामी लिखित पुस्तक, पृष्ठ 36-37 और 123)।
कानजी स्वामी का कहना कि परिणामों के उत्पाद-व्यय-ध्रुव की बात कहकर मानो क्रमबद्धपर्याय की सांकल बना दी है (वही पुस्तक, पृष्ठ 16), उसका मनमाना अर्थ करना है। प्रवाह क्रम का स्पष्टीकरण करते हुए पंचाध्यायीकार ने लिखा है कि क्रम विष्कम्भ को कहते हैं अर्थात् एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, तीसरी के बाद चौथी, इसको प्रवाह, विस्तार या विष्कम्भ कहते हैं। क्रम से परिणमन होना प्रवाह का कारण है या यों कहिए कि जो पर्यायजात के प्रवाह का कारण है वह भी क्रम कहलाता है। यह क्रमवर्ती परिणमन कभी सर्वथा सदृश नहीं होता है यानी बाद की पर्याय (उत्तरवर्ती पर्याय) अपनी पूर्ववर्ती पर्याय से कुछ भिन्नता को लिए अवश्य होती है अर्थात क्रमवर्तीपना व्यतिरेकपने की विशिष्टता को लिए हुए होता है। (पंचाध्यायी, प्रथम अध्याय, श्लोक 175-175)
एक द्रव्य की अपनी क्रमिक अवस्थाओं में अमुक उत्तर पर्याय का उत्पन्न होना केवल द्रव्य योग्यता पर ही निर्भर नहीं करता, किन्तु कारणभूत पर्याय की तत्पर्याय-योग्यता पर भी निर्भर करता है। एक अविच्छिन्न प्रवाह में चलने वाली धारावाहिक पर्यायों का परस्पर ऐसा विशिष्ट सम्बन्ध होता है, जिसके कारण अपनी पूर्व पर्याय ही अपनी उत्तर पर्याय में उपादान कारण हो सके, दूसरे की उत्तर पर्याय में नहीं। यह अनुभव सिद्ध व्यवस्था न तो सांख्य के सत्कार्यवाद में संभव है, और न बौद्ध तथा नैयायिक आदि के असत्कार्यवाद में ही। सांख्य के पक्ष में कारण के एक होने से इतनी अभिन्नता है कि कार्यभेद को सिद्ध करना असम्भव है, और बौद्धों के यहां इतनी भिन्नता है कि अमुक क्षण के साथ अमुक क्षण का उपादान-उपादेय भाव कठिन है। इसी तरह नैयायिकों के अवयवी द्रव्य का अमुक अवयवों के ही साथ समवाय सम्बन्ध सिद्ध करना इसलिए कठिन है कि उनमें परस्पर ।