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यि में अर्थशास्त्र
271 | होना या अति प्राचीन होना सिद्ध हो जाता है।
प्रथमानुयोग जिसमें धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष - इन चार पुरुषार्थ एवं महापुरूषों के चरित्र का वर्णन होता है वह प्रथमानुयोग है। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण, कुलकर आदि पुरूषों के समय वैभव व
सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था का विस्तृत एवं सुन्दर वर्णन प्रथमानुयोग के शास्त्रों में मिलता है। आदिपुराण, । उत्तर पुराण, हरिवंश पुराण, पद्मपुराण, श्रीपाल चरित्र, श्रेणिक चरित्र आदि के वर्णन अर्थव्यवस्था को भी । बताते हैं। ऐसे महान पुरूष आमतौर से राजा होते हैं और राजा को तो एक अच्छा अर्थशास्त्री होना आवश्यक
होता है। अच्छा राजा तो अवश्य अर्थशास्त्र का ज्ञान रखता है। नीचे कुछ उदाहरणों से इस बात को अधिक स्पष्ट
करते हैं। । यह प्रसिद्ध है कि आदिनाथ ने अपने भरत आदि पुत्रों को आम्नाय के अनुसार अनेक शास्त्र पढ़ाये। बड़े
बड़े अध्यायों सहित अर्थशास्त्र, नृत्यशास्त्र, चित्रकलाशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, आयुर्वेद, तंत्र परीक्षा, रत्नपरीक्षा आदि उनमें
वर्तमान अर्थव्यवस्था में गरीबों के लिए अनेक आर्थिक कार्यक्रम सरकार व अन्य लोगों द्वारा चलाये जाते हैं। आदिपुराण में भरत चक्रवर्ती के चक्ररत्न की पूजा व पुत्र के आनंद महोत्सव का वर्णन आता है। उसमें आचार्य जिनसेन लिखते हैं- “राजा भरत के उस महोत्सव के समय संसार भर में कोई दरिद्र नहीं था, किन्तु दरिद्रता सबको संतुष्ट करनेवाले याचकों के प्राप्त करने में रह गयी थी।" पुनः 31वें पर्व में कहा है, 'योग्य निधियां, रत्न तथा उत्कृष्ट भोग-उपभोग की वस्तुओं के द्वारा जिसमें सुखों का सार प्रगट रहता है और जिसमें अनेक सम्पदाओं का प्रसार रहता है, ऐसा यह चक्रवर्ती पद जिसके प्रसाद से लीलामात्र में प्राप्त हो जाता है, ऐसा यह जिनेन्द्र भगवान का शासन सदाकाल जयवन्त रहे।' अयोध्या की रचना इंद्र द्वारा की गई, हरिवंशपुराण में राजा नाभिराय के प्रासाद 'सर्वतोभद्र' का वर्णन है। उसके खम्भे स्वर्णमय थे, दीवालें नाना प्रकार की मणियों से निर्मित थीं। वह महल पुखराज, मूंगा, मोती आदि की मालाओं से सुशोभित था। इक्यासी खंड से युक्त था। कोट, वापिका तथा बाग-बगीचों से अलंकृत था।
करणानुयोग
अर्थशास्त्र को सांसारिक सुख से संबंधित मानकर देखा जाय तो करणानुयोग के शास्त्रों में तो लोक के विभाग, युग-परिवर्तन, चार गतिरूप परिभ्रमण आदि का स्वरूप बतलाकर सांसारिक सुख-दुःख की स्थिति का वर्णन किया गया है। तिलोयपण्णति, त्रिलोकसार, जम्बूद्वीप पण्णति आदि ग्रंथों में करणानुयोग के विषयों का व्यापक वर्णन मिलता है।
अधोलोक में नरकों के उष्ण-शीत बिल का स्वरूप दुःखों की तारतम्यता को बताता है। नरकों में जन्म लेते समय बिलों में औधे मुंह गिरकर जीव गेंद के समान उछलता है। इन नरकों की मिट्टी की स्थिति व नरकों के दुःख से वहां की व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। नारकी आपस में एक दूसरे को भयंकर दुःख देते हैं और क्षण मात्र के लिए भी वहां सुख व शांति नहीं मिलती है। लेकिन वहां भी जीव वेदना से, देवों के सम्बोधन से या जाति स्मरण ज्ञान से सम्यक्त्व की प्राप्ति कर अंतरंग में सुख का अनुभव करते हैं।