Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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प्राप्त किया जाये? प्रत्येक धर्म ऐसी जागृति का समर्थन करता है एवं इस तरह का प्रयास करता है कि मुक्ति कैसे
प्राप्त हो? यह विषय जैन धर्म में सम्यक्-चारित्र के रूपमें वर्णित है जो अनेक भेदों वाला कहा गया है। इन सभी । प्रकार के भेदों में रहस्यमय ढंगसे वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य दृष्टव्य है। सम्यक्-चारित्र का भी लक्ष्य जीवको कर्मकी । प्रकृतियों तथा अन्य बन्धकी अवस्थाओं से धीरे धीरे मुक्त कराके ऐसी अवस्था में ले जाना है जहाँ अन्ततः एक
भी कर्म प्रकृति शेष नहीं रह जाती है, जिसका वर्णन गुणस्थानों की उपलब्धि के रूपमें अथवा अन्य लब्धियों के रूपमें गणितीय प्रमाणों के द्वारा लब्धिसार, कषायपाहुड़ जैसे ग्रंथ एवं उनकी टीकाओं में विशद रूप से विवेचित है। यद्यपि चारित्र का विशद वर्णन चरणानुयोग के ग्रंथो में ही मिलता है, जो विशेष रूपसे 'मूलाचार' 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' 'भगवती आराधना', 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय', 'सागारधर्मामृत', 'अनगार-धर्मामृत' एवं 'वसुनंदि श्रावकाचार' आदि ग्रंथो में उपलब्ध है किन्तु इनका वैज्ञानिक अध्ययन विद्वानों के अध्ययन का विषय बनाया गया है। कारण, जिसे एक बार दृष्टि मिल जाती है, उसकी अन्तःप्रज्ञा इतनी प्रखर हो उठती है कि बिना वैज्ञानिक विश्लेषण किये ऊँचाईयों तक पहुँचने में सक्षम हो जाता है। अतः चारित्र के इस स्वरूप का विश्लेषण जैनाचार्यों ने भावों की वैज्ञानिक प्रक्रियाओं द्वारा अत्यन्त सूक्ष्मता से और गहराई से गणितीय अध्ययन का विषय
बनाया है। चूँकि भाव एक क्षण है, जबकि द्रव्य दृष्टि स्थायी है। अतः द्रव्यदृष्टि को धुरी बनाकर विशुद्ध परिणामों | का लेखा जोखा किया जाता है, जिससे यह ज्ञात किया जा सके कि जीव किस गुणस्थान पर टिका हुआ है? आगे ! बढ़ रहा है? अथवा पीछे हट रहा है? भावों की यह मापतौल बाजार में चढ़ने उतरने वाले भावों से कहीं अधिक
जटिल, गहन और दुस्तर है। जैसे भावों की तौलको समझकर व्यापारी उत्कृष्ट लाभको प्राप्त होता है, उसी प्रकार जीव अपने भावों को तौलते हुए परमपदको प्राप्त हो जाता है।
'वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में जैनधर्म' के ज्योतिष, कर्मादि के मॉडल्स (प्रतिकृतियाँ) अनेक संभावित समीक्षाओं की । ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। वर्तमान वैज्ञानिक, सामान्यतः प्राचीन सिद्धान्तों को इतिहासकी दृष्टिको । देखते हैं, फलस्वरूप न केवल जैन धर्म वरन् अनेक धर्मों के समक्ष तरह तरह की शंकाएँ उपस्थित हो गई हैं। आजका विचारक तो प्राचीन धर्म और दर्शन को अज्ञान एवं भयकी मानवीय प्रतिक्रिया के रूपमें स्वीकार करता । है। धर्म और दर्शनको इतिहास में पहले कभी इतनी तीखी आलोचना का सामना नहीं करना पड़ा जितना कि । आज। ठीक इससे विपरीत दशा विज्ञान की प्रारंभिक स्थिति में थी। वैज्ञानिकों को बड़े-बड़े त्याग और बलिदान देने पड़े ताकि अज्ञानके अंधकारको छिन्न भिन्न किया जा सके। __ आज धर्मको वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करना आवश्यक हो गया है यदि धर्म आजके दृष्टिकोण से प्रस्तुत नहीं किया गया तो धर्म मंदिरों में विराजमान प्राचीन एवं गौरवपूर्ण मूर्तियों तक ही सीमित रह जायेगा, जिनके प्रति जन मानस श्रद्धा एवं गौरवसे नम्रीभूत रहता है। समाजकल्याण एवं लोकोद्धारकी दृष्टिसे वैज्ञानिकों की भूमिका नगण्य रहती है। 'धर्मकी दृष्टि पहले स्वकी एवं फिर समाजकी ओर होती है। वही धर्म जब तक सक्रिय भूमिका का निर्वाह नहीं करेगा तब तक उसकी वैचारिक मीमांसा मात्रसे कोई प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं है। धर्मकी कूटस्थता एवं शाश्वतता के एकान्तवादी आग्रहका समर्थक वर्ग अब तो यही मानता आ रहा है कि धर्म ।
और दर्शन सदैव जीवनकी शाश्वत समस्याओं को हल करता है परन्तु इतने मात्रसे ही संतोष कर लेने पर धर्म । की प्रासंगिकता आजके परिप्रेक्ष्य में अनालोचित ही रह जाती है।'
धर्मकी वैज्ञानिक व्याख्या करने की ओर डॉ. राधाकृष्णन, प्रभृति आधुनिक विचारकों ने विशेष रुचि ली है। ऐसी मान्यता सुदृढ़ है। वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण जिस शक्तिका हमने अर्जन किया है उसका उपयोग किस ।