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म तियों के वातायनल प्रकार हो, गतिका नियोजन किस प्रकार हो, आजके युगकी जटिल समस्या है। इसके समाधान के लिये हमें धर्म
और दर्शन के जिस पूरक सहयोग एवं समन्वयकी आवश्यकता है उसके लिये जरूरी है कि परम्परागत अंधविश्वासों । एवं कुरीतियों पर आधारित मूल्यों का निराकरण कर दिया जाये। भौतिक विज्ञानों के चमत्कारों से भयाकुल | चेतना को हमें आस्था प्रदान करना है। निराश एवं संत्रस्त मनुष्यको जाशा एवं विश्वासकी मशाल थमानी है, जिन परम्परागत मूल्यों को तोड़ दिया गया है, उनपर विश्वास नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे अविश्वसनीय एवं अप्रासंगिक हो गये हैं। परम्परागत मूल्यों की विकृतियों को नष्ट कर देना ही अच्छा है। हमें नये युगको नये जीवन मूल्य प्रदान कर समाधान का रास्ता खोजना है। ___ इसप्रकार विज्ञानके नवीन आलोक में धार्मिक कुरीतियों, रूढ़ियों, अंध-विश्वासों का अवलोकन करते हुये
चेतना के वास्तविक स्वरूपकी ओर ले जाने वाले धर्म पथका विवेचन स्वाभाविक है। ___ सिद्धान्ततः धर्म और विज्ञानका स्वतंत्र महत्त्व है, दोनों ही सत्य तक पहुँचने के माध्यम हैं। विज्ञान भौतिक प्रयोगशाला में किसी वस्तुकी सार्वभौमिक सत्यता को उद्घाटित करता है, तो धर्म जिज्ञासा और अनुभव के आधार पर आत्म प्रयोगशाला में सत्य को खोजता है। दोनों का मार्य तो एक ही है, सत्यको परखना, पहचानना, पर मार्ग अलग-अलग हैं। इस प्रकार आज लगभग सभी विचारक इससे सहमत हैं कि धर्म और विज्ञान दोनों ही जीवनोपयोगी हैं और दोनों का लक्ष्य भी सत्यानुसंधान है। दोनों के बढ़ते हुये स्वरूपका पीछे हटना संभव नहीं है। ___आधुनिक भौतिक विज्ञान ने परमाणु को बिन्दुगत एवं तरंगगत रूपसे जो द्वैत रूप सिद्ध किया है वह जैन तत्त्व मीमांसात्मक सापेक्ष दृष्टि से सत्य प्रतीत हो रहा है। इसी तरह जैन धर्मकी पुनर्जन्म सम्बन्धी मान्यता एवं कर्म सिद्धांत संबंधी मान्यताओं को भी वैज्ञानिक मीमांसात्मक कसौटी पर कसने का प्रयास किया गया है। ___ इस तरहके और भी अनेक तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि धर्म और दर्शनके सिद्धान्तों को आधुनिक | विज्ञानके संदर्भ में युक्तिसंगत ठहराया जा सकता है परन्तु इस संबंध में यह भी विशेष रूपसे विचारणीय है कि क्या धर्म और विज्ञानकी सत्यानुसंधान प्रक्रिया एक है? कारण कि जो निरीक्षण और प्रयोगके दायरे में न आता हो और विवेक सम्मत न हो उसे विज्ञान मानने को सहमत नहीं है। आधुनिक युगमें विश्वास और आप्तोपदेशका कोई स्थान और महत्त्व इतना नहीं रह गया है। क्या विज्ञानने मनुष्यों को इनके विरुद्ध विद्रोह करना सिखाया है? __वस्तुतः विज्ञान और धर्मकी प्रतिकूलताका प्रश्न यहीं से उठता है। विज्ञान धार्मिक विश्वासों और मान्यताओं का विरोधी है। अनेक धर्म संस्थायें यह कदापि स्वीकार नहीं करेंगी कि विज्ञान उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करे। इसी प्रकार धर्म ग्रंथो में आप्त मानने का आग्रह इतना प्रबल रहता है कि विज्ञान द्वारा प्रकटित सत्य यदि आप्तके विरुद्ध जाय तो भी धार्मिक जगत में विज्ञान के हस्तक्षेपको सहन नहीं किया जायेगा। इन परिस्थितियों । में विद्वानों के लिये यह सिद्ध करना विशेष महत्त्व नहीं रखता कि अमुक धर्म, अमुक सिद्धान्त विज्ञान सम्मत हैं, । जब तक इस संभावनाकी पूरी तरह छानबीन नहीं कर ली जाती है कि धर्मान्तर्गत विज्ञानसम्मत प्रगतिशील मूल्यों के जुड़ने का अवकाश भी है या नहीं। इस वस्तुस्थिति को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि आधुनिक विज्ञान ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, कर्मसिद्धान्त, बन्ध, मोक्ष आदि धर्म दर्शन के कूटस्थ मूल्यों को संदिग्ध दृष्टि से देखता है तथा भौतिक जगत् तक ही अपने सत्य अनुसंधान को सीमित किये हुए है। जबकि धर्म, ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म सिद्धान्त के मूलाधार पर ही अवलम्बित है तथा भौतिक जगत् के तत्त्वों का वह उदासीन दृष्टि से विश्लेषण करता आया है। इस प्रकार धर्म जिन आध्यात्मिक मूल्यों को सत्य मानते हुए भौतिक जगत के प्रति उदासीन है, विज्ञान ठीक इसके विपरीत चलते हुये भौतिक तत्त्वों के प्रति आस्थावान है और आध्यात्मिकता का ।