Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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तालियों का 3. गति विज्ञान
भारतीय चिन्तन में विशेषतः जैन चिन्तन में अजीव तत्व के अन्तर्गत जीव एवं भौतिक तत्व के गति माध्यम । स्वरूप धर्म द्रव्य, स्थिति माध्यम स्वरूप अधर्म द्रव्य का भी चिन्तन किया गया है। यह चिन्तन आधुनिक विज्ञान | के ईथर एवं ग्रेविटेशन फोर्स (गुरुत्वाकर्षण बल) से कुछ समानता रखते हुए भी इससे भिन्न, व्यापक एवं सटीक
। है। यथा
"गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी।
तोयं जह मच्छाणं अच्छंता व सो णेई॥" (ब्रम्यसंग्रह, 17) ___ गति/गमन में परिणत जो पुद्गल और जीव है उनके गमन में धर्म द्रव्य सहकारी है। जैसे मत्स्यों के गमन में जल सहकारी है और नहीं गमन करते हुए पुद्गल और जीवों को वह धर्म द्रव्य कदापि गमन नहीं कराता है। 4. स्थिति विज्ञान
“वणजुदाण अपम्मो पुग्गलजीवाण अणसहयारी।
छाया जह पहियाणं गच्छंता व सो धरई॥" (द्रव्यसंग्रह, 18) स्थिति सहित जो पुद्गल और जीव हैं उनकी स्थिति में सहकारी कारण अधर्म द्रव्य है, जैसे पथिकों (बटोहियों) की स्थिति में छाया सहकारी है और गमन करते हुए जीव तथा पुद्गलों को वह अधर्म द्रव्य नहीं ठहराता है।
5. आकाश एवं काल विज्ञान प्राचीन भारतीय विज्ञान में उपर्युक्त द्रव्यों के साथ-साथ आकाश एवं काल का भी वर्णन आधुनिक विज्ञान के वर्णन से भी श्रेष्ठ एवं ज्येष्ठ पाया जाता है। काल एवं आकाश का विशेष वर्णन वैज्ञानिक आईन्स्टीन के सापेक्ष । सिद्धान्त में ही पाया जाता है। इससे पहले काल एवं आकाश के बारे में विशेष चिन्तन नहीं था। इतना ही नहीं । आईन्स्टीन के विश्व एवं प्रतिविश्व चिन्तन से भी अधिक श्रेष्ठ चिन्तन जैन प्राचीन विज्ञान में पाया जाता है यथा- !
"अवगासदाणजोगं जीवादीणं वियाण आयासं।
जेणं लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं ॥" (द्रव्यसंग्रह, 19) जो द्रव्यों के परिवर्तन रूप, परिणाम रूप देखा जाता है वह तो व्यवहार काल है और वर्तना लक्षण का धारक । जो काल है वह निश्चय काल है।
"धम्माऽधम्मा कालो पुग्गल जीवा य संति जावदिये।
आयासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्तो॥" (द्रव्यसंग्रह) ___धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव- ये पाँचों द्रव्य जितने आकाश में हैं वह तो लोकाकाश है और उस लोकाकाश के आगे अलोकाकाश है।
6. भौतिक एवं रसायन विज्ञान
प्राचीन भारतीय विज्ञान में जीव के चिन्तन के साथ-साथ अजीव, अचेतन तथा जड़ तत्त्व के बारे में भी । चिन्तन किया गया है। इसका कारण यह है कि सम्पूर्ण सत्य में या ब्रह्माण्ड में चेतन के साथ-साथ अचेतन का । भी अस्तित्व अनादिकाल से है। इसके साथ-साथ संसार अवस्था में जीव को जड तत्त्व आदि से भी सहयोग लेना पड़ता है। अचेतन तत्त्व में भी पुद्गल (भौतिक, रासायनिक) तत्त्व का चिन्तन जीव तत्त्व के बाद में अधिक गहनता से किया गया है।