Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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उस समय तक सभी प्राकृतिक शक्तियों को केवल दैवीय रूप ही प्राप्त था किन्तु अब युनान में थेलीज और पिथेगोरस (ई.पू. छठी सदी), भारतमें महावीर एवं बुद्ध तथा चीनमें कन्फ्यूशस जैसे दार्शनिक विचारकों ने जन्म लिया तो प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन करने हेतु एक बहुत बड़ी क्रान्ति हुई जिसमें जैनधर्मने भी अहम् भूमिका निभाई। डॉ. दयानन्द भार्गव 'आधुनिक संदर्भ में जैन दर्शनके पुनर्मूल्याकंनकी दिशायें' नामक अपने लेखमें कहते हैं
'आधुनिक काल में जैनागमों में उपलब्ध भौतिकी, रसायनशास्त्र तथा गणित संबंधी मान्यताओं का विवरण | देकर जैनागमों को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया गया है। जैनागममें भौतिक विज्ञानके संबंध में कुछ तथ्य ! मिलते हैं। इसमें किसीको मतभेद नहीं है किन्तु यदि हम उन तथ्यों को इस रूपमें रखें कि मानो आधुनिक काल
के विज्ञानकी समस्त उपलब्धि जैनागममें पहले से ही प्राप्त थी, तो यह विचारणीय बात है। विज्ञानका अपना 1 इतिहास है, उस इतिहास में विज्ञानका निरन्तर विकास हुआ है। जैनागमों में उस समयकी अपेक्षा से कुछ । वैज्ञानिक तथ्यों का उद्घाटन हुआ। यह ऐतिहासिक दृष्टिसे महत्व का है किन्तु इस तथ्य को अपनी आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता कि आज हम विज्ञानके क्षेत्र में जैनागमों के कालकी अपेक्षा बहुत आगे बढ़ चुके हैं और इस बातमें कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए कि जैनागमकी कोई बात आजके विज्ञानसे मिथ्या सिद्ध हो जाये।'
प्रसंग जैन धर्म के वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्यका है न कि सम्पूर्ण जैन धर्म के वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्यका, ये दोनों एक दूसरे ! के साथ एक ओर साम्यता रखते हैं तो कुछ बिन्दुओं पर वैषम्य । कहीं कहीं पौराणिक कपोल कल्पनाओं के दर्शन भी संभव हैं। हमें उन्हीं स्थलों से प्रयोजन है जो हमारे आचार विचार अथवा लोक अलोक से संबंधित हैं न कि कथा कहानियों से।
जैसे आजका विज्ञान विगत दो तीन सौ वर्षों में ही वैज्ञानिक प्रयोगों के माध्यम से नाभिकीय शक्तिके स्फोट 1 तक पहुँच गया, जहाँ नाभिको ही विखंडित कर दिया गया तथा एक तत्त्व को दूसरे तत्त्व में बदल दिया गया। ठीक ! उसी प्रकार सभ्यता के इन स्थलों में यह रास्ता निकाला गया, जिसके द्वारा मानव एक सर्वोत्कृष्ट रूप में प्रकट हो सके। अथवा ऐसे तत्त्व में प्रकट हो सके जो सदैव अजर-अमर रहता हो एवं शाश्वत् हो। लगभग पाँच छह सौ वर्ष से अरब एवं योरोपमें ऐसे रसायनकी खोज चलती रही जो लोहे को स्वर्ण में बदल सके। यह तभी संभव । था जब कि उन्हें इस बातका ज्ञान होता कि किसी तत्त्वकी नाभि कैसे तोड़ी जाये। आजके वैज्ञानिकों ने यह कर दिखाया। इसका सादृश्य जैन दर्शनमें मिथ्यात्व द्रव्य का विखण्डन और उसके मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति रूप तीन टुकड़ों की घटना में उपलब्ध है। यह प्रक्रिया सम्यक् दर्शनकी प्राप्ति कराने में कारण थी।
करणानुयोग में अपेक्षित सामग्री :
1. जैन मान्यतानुसार ब्रह्माण्डका विस्तार ३४३ घन राजू निश्चित है किन्तु आधुनिक विज्ञानकी अनेक मान्यताओं में एक यह भी मान्यता है कि यह एक अत्यन्त सघन पिण्डके रूपमें था, जिसने लगभग ५ करोड़ वर्ष पूर्व फैलना शुरू कर दिया था एवं आज भी फैल रहा है। ब्रह्माण्ड के विस्तार का निष्कर्ष वर्ण क्रम में स्थित लाल रेखाओं के स्थानान्तरण के द्वारा निकाला गया था। इस तरह साम्य के साथ साथ जैन धर्म और विज्ञानमें वैषम्य भी गोचर होता है।
2. करणका दूसरा अर्थ परिणाम है। अर्थात् परिणामों का वर्णन करनेवाला तथा कर्म प्रक्रियाका कथन करनेवाला भी करणानुयोग ही है। इसमें कर्म के सत्त्व का स्थिति रचना यंत्र के द्वारा वैज्ञानिक स्वरूप वर्णित है। इस यंत्रके माध्यम से यह बताया गया है कि इस जीवने अनादिसे विगतमें जो कर्म किये हैं उनके कारण हुये कर्म ।