Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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अमृतचन्द्र एक टीकाकार हैं, मूल लेखक नहीं। टीकाकार का काम होता है मूल लेखक के विचारों को अपनी व्याख्या द्वारा और अधिक स्पष्ट करना, न कि अपनी किसी नई बात का या किसी नये सिद्धान्त का प्रतिपादन करना । यदि ऐसा करना होता तो आ. अमृतचन्द्र अपने किसी स्वतंत्र ग्रन्थ में वह सिद्धान्त रखते। अपनी टीका में वे ऐसी बात नहीं कह सकते हैं जो आ. कुन्दकुन्द के विचारों से मेल नहीं खाये ।
यही कारण है कि उनका प्रयुक्त 'नियमित' शब्द 'क्रम' का विशेषण नहीं है, किन्तु 'आत्मपरिणाम' का विशेषण है (जीवो हि तावत क्रमनियमितात्मपरिणामैः उत्पद्यमानो जीव एव नाजीवः) जैसा कि पं. जयचन्दजी के इस पंक्ति के अर्थ से विदित होता है- "जीव है सो तो प्रथम ही और नियत निश्चित अपने परिणाम तिनिकरि 1 उपजता संता जीव ही है, अजीव नहीं है।" 'नियमित' शब्द देने का प्रयोजन यह है कि जीव के परिणाम जीवरूप
ही है। अजीव रूप नहीं है। इसी प्रकार अजीव भी क्रमानुसार होनेवाले निश्चित अपने परिणामों से (अर्था निश्चत रूप से अपने आत्म परिणामों से ही ) उत्पन्न हुआ अजीव ही है, जीव नहीं है क्योंकि सभी द्रव्यों का अपने | परिणामों (पर्यायों) के साथ तादात्म्य होता है। पं. जयचन्द जी ने भावार्थ में भी कहा है- "सब द्रव्यों के परिणाम न्यारे न्यारे हैं।"
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अतः समयसार गाथा 308-311 पर की गई आ. अमृतचन्द्रकी टीका से " क्रमबद्धपर्याय अर्थात् एकान्तनियति" का सिद्धान्त सिद्ध नहीं होता। इस बारे में थोड़ा सा भी सन्देह नहीं है कि पर्याय क्रमवर्ती भी होती ! है और अक्रमवर्ती भी होती हैं आ. अमृतचन्द्र ने समयसार कलश, 264 में क्रमबद्धपर्याय रूपी एकान्तनियतिवाद का निराकरण करते हुए स्पष्ट लिखा है कि "यह चैतन्य आत्मा अपने ज्ञानमात्रमयीपने भाव को नहीं छोडते हुये भी वह द्रव्यपर्यायमयी वस्तु है और इस तरह “ एवं क्रमाक्रमविवर्तिविवर्तचित्रं तदद्रव्यपर्यायमयं चिहिदास्ति वस्तु”, अर्थात् क्रम और अक्रम रूप विशेष वर्तने वाले जो विवर्त (परिणमन की विकाररूप अवस्था) उनसे अनेक प्रकार होकर वह द्रव्य पर्यायमय प्रवर्तन करता है।
उपर्युक्त वर्णन से यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि 'क्रमनियमित' शब्द को क्रमबद्ध का एकार्थवाची (भारिल्ल लिखित पुस्तक, पृष्ठ 18-19 ) समझ लेने की कानजी स्वामी और भारिल्ल ने बहुत बड़ी भूल की है । क्रमबद्धपर्याय का उन्होंने अर्थ लगाया है कि प्रत्येक द्रव्य की तीनों कालों की पर्यायों का क्रम निश्चित है। जिस समय जिस पर्याय का क्रम है वह एक समय भी आगे-पीछे नहीं होगी। 100 नम्बर की पर्याय 99 नम्बर की । नहीं हो सकती और 101 नम्बर की भी नहीं हो सकती है। (कानजी स्वामी द्वारा लिखित पुस्तक, पृष्ठ 45 ) दूसरे शब्दों में हर द्रव्य की प्रतिक्षण की अनन्त भविष्यकालीन पर्यायें क्रम क्रम से सुनिश्चित हैं। जीव उनकी धारा को नहीं बदल सकता।
यदि ऐसा है तो पुद्गल (अजीव द्रव्य) कर्म के निमित्त से होने वाले जीव के परिणामों (परिणमन, पर्याय) पर 1 जीव का अपना कोई अधिकार नहीं है। वह नितान्त परतन्त्र है और अगले क्षण को नई दिशा देने या बदलने में अपने बल, वीर्य और पौरुष का कुछ भी उपयोग नहीं कर सकता। जब वह अपने भावों को ही नहीं बदल सकता, तब स्वकर्तृत्व कहां रहा? जीव की उपादान शक्ति का कोई योगदान नहीं रहा, उस जीवात्मा की अपनी उपयोगात्मक वीर्यमय चेतन शक्ति की भी कोई स्वतंत्रता नहीं रही। एक तरफ तो कानजी स्वामी निमित्त को कोई ! महत्व नहीं देते और यहां क्रमबद्धपर्याय की अवधारणा को प्रचारित करने के लिए जीव की उपादान चेतन शक्ति की स्वतंत्रता को ही नकारते प्रतीत होते हैं।
(2) क्रमबद्धपर्याय के सिलसिले में कानजी स्वामी दूसरा सहारा समयसार की गाथा 76-77-78 का