Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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मतिया ताम | अस्तित्व बना रहा।
इस उदाहरण में यह बात ध्यान देने योग्य है कि ये पर्यायें क्रमवर्ती हैं यानी ये पर्यायें एक के बाद एक होती हैं। बचपन के बाद युवा, युवा के बाद प्रौढ और प्रौढ के बाद बुढापा पर्याय। इसके अलावा यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि पहले की और बाद की पर्यायों में एक प्रवाह क्रम है और ऐसा लगता है कि पूर्ववर्ती और बाद की उत्तरवर्ती पर्यायों की एक श्रृंखला (series) होती है जैसे मोतियों की माला में मोती होते हैं या सांकल की कड़ियां जो एक दूसरे से जुड़ी होती हैं। हां, यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि जीव की पर्यायों (जीव के मानसिक भावों के परिणमन) की श्रृंखला पुद्गल या द्रव्य कर्म के परिवर्तन या परिणमन की श्रृंखला से अलग है, हालांकि भावकर्म और पुद्गल कर्म का आपस में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। ____ जीव जब शुभ अशुभ का परिणाम (भाव) करता है तो उसका निमित्त पाकर पुद्गल कर्म जीव के साथ बंध जाता है और जब पुदगल कर्म का उदयकाल आता है तो इस जीव का क्रोधादि रूप परिणाम हो जाता है। यहां यह कहना कि कर्म ने जीव को क्रोधी बना दिया अथवा कर्म ने उसे परतन्त्र कर दिया, यह एक उपचार कथन है। वास्तव में कर्मों के उदय का निमित्त पाकर यह जीव अपने में विकार भाव उत्पन्न करके अपनी स्वतंत्रता से स्वयं परतन्त्र यानी कर्माधीन होता है। ___ द्रव्य और पर्याय के उपर्युक्त वर्णन और जीव और पुद्गल अथवा भाव कर्म और द्रव्य कर्म के आपस में निमित्त नैमित्तिक कारण कार्य रूप सम्बन्ध के द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द ने न केवल मन और शरीर सम्बन्ध की दुरूह समस्या (mind-body problem) का समाधान किया है, बल्कि जीव के मानसिक भावों के परिणमन रूप भाव कर्म और मस्तिष्क के स्नायुतंत्र के परिवर्तन रूप पुद्गल (द्रव्य) कर्म के बीच प्रत्यक्ष कारण कार्य सम्बन्ध के स्थान पर उसे निमित्त नैमित्तिक रूप परोक्ष (indirect) कारण कार्य की तरह का सम्बन्ध बता कर [ जिससे । दोनों प्रकार के परिणमनों की पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती (बाद में होने वाली) पर्यायों की अलग अलग श्रृंखला (एक प्रकार का क्रमिक सम्बन्ध) बनी रहे ] जीवात्मा की उपयोगात्मक वीर्यमय चेतन शक्ति की स्वतंत्रता को भी । कायम रखा है अर्थात् आत्मा के पुरुषार्थ करने की स्वतंत्रता विद्यमान रहती है। अभी तक पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों, दार्शनिकों और मस्तिष्क विद्या के विशेषज्ञों के सामने यह गहन समस्या बनी हुई है कि जबकि मानसिक भाव ।
और व्यक्ति के स्नायुतंत्र (जो कि पौद्गलिक, भौतिक हैं) विभिन्न गुण धर्म वाले तत्त्व या पदार्थ हैं, इनका एक | दूसरे के साथ क्या सम्बन्ध है और ये एक दूसरे पर कैसे प्रभाव डालते हैं। इस प्रभाव के कारण जैसा मस्तिष्क के । स्नायुतंत्रों का परिणमन होता है उसी के समानान्तर या समकक्ष मनुष्य के मानसिक भाव होते हैं और जैसे मनुष्य के भावों का परिणमन होता है उसी के अनुसार मस्तिष्क के स्नायुतंत्रों में परिवर्तन और शरीर की ग्रन्थियों का स्राव होता है। (इस बात को लेखक ने अपनी पुस्तक fundamentals of Jainism में और अधिक स्पष्ट किया है।
पुद्गल (द्रव्य) कर्म के उदय (जो हमारे हाथ में नहीं है) या प्रभाववश जीव में क्रोधादि का आवेश उत्पन्न होने । पर भी वह जीव क्रोध करके नये कर्म का बंध करे या नहीं करे इसकी जीव को स्वतंत्रता (साथ ही पहले के बांधे हुए कर्मों में फेर बदल, घटत बढत करने की भी स्वतंत्रता है) है- इसका खुलासा और विस्तृत वर्णन लेखक द्वारा संपादित 'करम गति टाली नाहिं टलै?" पुस्तक में दिया गया है।
ऊपर लिखित महत्वपूर्ण बातों को भली प्रकार न समझने के कारण श्री कानजी स्वामी के प्रवचनों (जो उनकी पुस्तक "ज्ञानस्वभाव और ज्ञेयस्वभाव' में छपे हैं) और उनके शिष्य हुकुमचन्द भारिल्ल के लेखों (जो