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म तियों केतापन । 'पांडुसुआ तिणिजणा दविडणरिदाण अट्ठकोडीओ। सेत्तुंजय गिरि सिहरे णिबाणगण णमो तेसिं॥६॥
भाषा पांडव तीन द्रविड़ राजान। आठकोड़ मुनि मुक्ति प्रमाण।
श्री सेत्तुंजय गिरि के शीस। भाव सहित बन्दी जगदीश ॥७॥ (भगवती दास) आचार्य जिनसेन ने हरिवंश-पुराण में बताया है
'ज्ञात्वा भगवतः सिद्धिं पञ्च पांडव साधवः। शत्रुजय गिरौ धीराः प्रतिमायोगिनः स्थितः ॥६५-१८॥ शुक्लध्यान समाविष्टा भीमार्जुन युधिष्ठिराः।
कृत्वाष्टविषकर्मान्तं मोक्षं जग्मुस्त्रयोऽक्षयम् ॥६५-२२॥ __ अर्थात् भगवान नेमिनाथ के निर्वाण-प्राप्ति का समाचार जानकर पाँचों पाण्डव मुनि शत्रुजय के ऊपर प्रतिमा योग धारण करके स्थित हो गये थे। युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन शुक्ल ध्यान में स्थिर होकर और आठों कर्मों का विनाश करके मुक्ति में चले गये अर्थात् मुक्त हो गये। __ श्वेताम्बर परम्परा में शत्रुजय तीर्थ की मान्यता अन्य सभी तीर्थों से अधिक है, यहाँ तक कि सम्मेद शिखर की अपेक्षा भी शत्रुजय को विशेष महत्त्व प्राप्त है।
यह पर्वत पर एक प्रकार से जैन मंदिरों का गढ़ है। पर्वत के ऊपर श्वेताम्बर समाज के लगभग ३५०० मंदिर हैं। एक स्थान पर इतनी भारी संख्या में मंदिर अन्यत्र हिन्दुओं और बौद्धों में भी नहीं है। इन मंदिरों में कई मंदिरों
का शिल्प सौन्दर्य और उनकी स्थापत्य कला अनूठी है। ___ यहाँ पर्वत पर एक वीतराग दिगम्बर तीर्थंकर मंदिर शोभायमान है। उसमें ९ वेदियाँ बनी हुई हैं। मुख्य वेदी में मूलनायक श्री शान्तिनाथ भगवान की पद्मासन मूर्ति अति मनोरम वि.सं. १६८६ की है। प्रतिष्ठाकारक बादशाह जहाँगीर के समय में अहमदाबाद निवासी रतनसी है।
३. घोघा - वर्तमान घोघा साधारण नगर है और खम्भात की खाड़ी के तट पर अवस्थित है। भावनगर से सड़क मार्ग से २३ कि.मी. है, लगता है, यह अतीत में पत्तन था और व्यापारिक केन्द्र भी। यहाँ से सुदूर अरब देशों को व्यापारिक माल का निर्यात और आयात होता था। . यह एक अतिशय क्षेत्र माना जाता है यहाँ श्वेत पाषाण की पद्मासन प्रतिमा है। भक्त लोग इसे चतुर्थ काल । की मानते है। तथा लांछन न होते हुए भी इसे शांतिनाथ की प्रतिमा मानते हैं। कहते हैं, कभी-कभी मंदिर में । रात्रि की नीरवता में घण्टों की आवाज सुनाई देती है। भक्त लोग यहाँ मनौती को आते है। ४. गिरनार- तीर्थंकर नेमिनाथजी की निर्वाणभूमि गिरनारजी (गुजरात) का इतिहास :'मा मा गर्वममर्त्यपर्वत परां प्रीतिं भजन्तस्त्वया। भ्राम्यते रविचन्द्रमः प्रभृतयः केके न मुग्धाशयाः॥ एको रैवत भूधरो विजयतां यदर्शनात् प्राणिनो। यांति प्रांति विवर्जिताः किल महानंद सुखश्रीजुषा॥७॥
राजा मण्डलीक का शिलालेख एक समय मध्यकाल में गिरिनार पर्वत पर चूडासमा वंश के राजाओं का अधिकार था। वहाँ पर उनका सुदृढ़ किला बना हुआ था। उन राजाओं में श्री रा. मण्डलीक नामक राजा प्रमुख थे, जिन्होंने उस पवित्र पर्वत पर भगवान नेमिनाथ का नयनाभिराम मंदिर बनवाया था और शिलापट पर अपनी प्रशस्ति अंकित कराई थी। । प्रशस्ति में गिरिनार का उल्लेख ऊर्जयन्त और रैवत नाम से हुआ है। गिरिनार की महिमा का बखान करते हुए ।