Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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प्रतियां के वाताव
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1 अहिंसानिष्ठ जीवन प्रणाली उपादेय है।
सामान्यतः प्रत्येक जीव के कषायमूलक भाव दो प्रकार के होते हैं- रागरूप और द्वेषरूप। इनमें से द्वेषमूलक जितने भी भाव होते हैं, वे सब हिंसा के अन्तर्गत माने जाते हैं। गृहस्थ को इनकी रक्षार्थ अपना कर्तव्य पालन करने के लिए सामने वाले का डटकर मुकाबला भी करना आवश्यक हो जाता है, किन्तु ऐसे समय मात्र धर्म, 1. राष्ट्र आदि की रक्षा भाव होना चाहिए, उसे मारने का नहीं । यद्यपि यह भी सम्भव है कि रक्षा के भावों के रहते सामने वाले की मृत्यु भी हो जाये। तब यदि हमारे भाव मात्र रक्षा के थे, तो यह आपेक्षिक अहिंसा कहलायेगी और यदि कषायवश हमारे भाव मात्र सामने वाले को मारने के थे, तब वही हिंसा कहलायेगी, जिसे हम संकल्पीहिंसा कहते हैं । इसीलिए आचार्य उमास्वामी ने हिंसा की परिभाषा करते हुए कहा है- 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' अर्थात् प्रमाद के योग से किसी भी प्राणी के प्राणों का घात करना हिंसा है। यहां 'प्रमाद का योग' यह पद । विशेष महत्व रखता है, क्योंकि जहां प्रमाद का योग नहीं है, वहां हिंसा सम्भव नहीं है ।
न मालूम यह भूल कब से होती चली आयी कि मानव समाज ने अपनी अनेक विषम स्थितियों का समाधान हिंसा में ही समझा। इस कारण उसके जीवन में हिंसा ही अधिक विकसित हुई। आज जब भी यह बताया जाता है कि बड़े से बड़ी गुत्थी अहिंसा के आधार पर सुलझाई जा सकती है, तो असम्भवता और अव्यावहारिकता के समस्त दोष लोगों के विचारों में नाचने लगते हैं। समझ में यह नहीं आता कि जब सारा संसार एकमत है कि युद्ध मानव-संस्कृति एवं सभ्यता का केवल विध्वंस और विनाश ही करते हैं, तथापि सम्पूर्ण विश्व में सर्वत्र युद्धसामग्री के अधिकाधिक संग्रह की मानो होड़ लगी है। आज हिंसा के विकास के लिए जितना धन, श्रम, शक्ति काव्यय, तोड़-फोड़ एवं क्रूरतापूर्वक परस्पर विध्वंस एवं विनाश करने में अनेक राष्ट्र लगे हैं, यदि वे सभी राष्ट्र मिलकर एक चौथाई प्रयत्न भी अहिंसा के लिए करें तो संपूर्ण विश्व को वह अहिंसा इच्छित वरदान दे सकती है। रात्रि - भोजन
विशेषकर रात्रिभोजन निषेध तो जैनों की कुल परम्परा है। बिना रात्रिभोजन त्याग के किसी भी व्रत को धारण करने का पक्ष तक स्वीकार्य नहीं है। क्योंकि यही तो व्रतों के अनुशीलन - ग्रहण का मंगलाचरण है । इन्हीं सब गुणों से प्रभावित जीवनशैली के कारण अब देश और विदेश की यात्रा करने वालों के लिए हवाई जहाजों में 'जैन आहार' की विशेष व्यवस्था होना कम महत्वपूर्ण नहीं है। यह जैन जीवनशैली का प्रभाव है। आज पाश्चात्य संस्कृति और उपभोक्तावादी आधुनिक जीवनशैली के प्रभाव से इन मूल्यो का हास होते देखा जा रहा है। रात्रि तमः अर्थात् अन्धकार की सूचक है । इसीलिए रात्रि को तमिस्त्रा भी कहा जाता है और तमः में बना भोजन तामसिक भोजन कहा गया है। ऐसा भोजन सर्वथा वर्जित है। जबकि सूर्य के प्रकाश में बना और दिन में ग्रहण किया गया शुद्ध आहार ही सात्विक आहार कहलाता है । और यही आहार सुख, सत्व और बल प्रदाता होता है। इसीलिए श्राद्धकर्म, स्नान, दान, आहुति, यज्ञ आदि शुभ कार्य एवं धार्मिक क्रियाएं वैदिक परम्परा में भी रात्रि में निषिद्ध' मानी हैं। अतः बुद्धिमान पुरुष रात्रि में भोजन नहीं करते। वसुनन्दि श्रावकाचार (३२४) में कहा हैअहिंसाव्रत रक्षार्थं, मूलव्रत विशुद्धये । निशायां वर्जयेत् भुक्तिं इहामुत्र च दुःखदाम् ॥
अर्थात् अहिंसाव्रत की रक्षा और आठ मूलगुणों की निर्मलता के लिए, साथ ही इस शरीर को निरोगी रखने एवं परलोक के दुःखो से बचने के लिए रात्रिभोजन का त्याग कर देना चाहिए। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय उपासकाध्ययन में भी ऐसे ही कथन है।
आरोग्यशास्त्र में आहार ग्रहण के बाद तीन घंटे तक शयन करना स्वास्थ्य के विरुद्ध बताया है। वस्तुतः सूर्य