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तिमलितति जलगालन अर्थात् छने (प्रासुक) जल का प्रयोग
कपड़े से पानी छानने के बारे में कहते हैं- वस्त्र से गालित जलपान करने की महत्ता भी सर्वविदित है। अनछने जल में अनेक सूक्ष्म जीव होते हैं, वे जल के पीने के साथ साथ उदर में जाने पर अनेक स्वयं मर जाते हैं और अनेक जीवित रहकर बड़े हो जाते हैं और नेहरूआ जैसे भयंकर रोगों को उत्पन्न करते हैं। इसीलिए अनेक रोगों
से बचने एवं जीव संरक्षण और स्वास्थ्य की दृष्टि से वस्त्र गालित जल का पीना आवश्यक है। । वस्त्र गालित जल पीना केवल जैनों का ही कर्तव्य नहीं, बल्कि आम जनता का भी है क्योंकि पानी सभी पीते । हैं और सभी को शुद्धता चाहिए। जैनेतर ग्रन्थ भी पानी छानने का समर्थन करते हैं। मनुस्मृति में लिखा है
दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं, वस्त्र पूत जलं पिबेत्। अर्थात् जीव रक्षा हेतु देखकर कदम रखो और कपड़े से छना जल पिओ। लिंगपुराण में लिखा है
सवंत्सरेण यत्पापं कुरुते मत्स्य वेषकः।
एकाहेन तदाप्नोति, अपूत जल संकुली॥ भावार्थ यह है कि मछली रोज मारने पर एक वर्ष में जितना पाप होता है उतना बिना छना पानी पीने वाला व्यक्ति एक दिन में पाप कमाता है। ___ आज परिवार, समाज या राष्ट्रीय स्तर पर जितनी भी समस्यायें उभरकर हम सभी को ही क्या, संपूर्ण विश्व को झकझोर रहीं हैं, परेशान कर रही हैं। उन सबके पीछे सदाचार शून्य जीवनशैली का प्राबल्य है। इसी कारण पारिवारिक जीवन भी प्रभावित हो रहा है। इसी से पारस्परिक प्रेम और सहयोग के स्थान पर कलह, तलाक, दहेज संबंधी हिंसा, भ्रूण-हत्यायें, आतंकवाद और पर्यावरण प्रदूषण जैसी विविध समस्यायें दिनों दिन बढ़ती ही जा रही हैं। इन सबका एक ही निदान है, हमारी जीवन शैली में सुधार। कहने को तो यह जैन जीवनशैली है, किन्तु वास्तविक रूप में यह प्रत्येक नागरिक के लिए आदर्श होने के कारण इसे सामान्य जन जीवन शैली कहा । जाए तो अत्युक्ति न होगी। ___ वस्तुतः व्रताचरण की दृष्टि से साधु और श्रावक का धर्म समान है, अलग नहीं। क्योंकि जिस सदाचरण से साधु को दूषण का पाप लगता है, उसी से श्रावक को भी लगता है। इसीलिए साधुत्व और श्रावकत्व दोनों आगम की आज्ञा में हैं। दोनों में अन्तर केवल मात्रा की दृष्टि से है। आंशिक व्रताचरण श्रावकत्व है और संपूर्ण व्रताचरण साधुत्व है। जैन जीवन शैली में श्रावक के निम्नलिखित दैनिक षट्कर्म प्रमुख माने गये हैं
देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्याय संयमस्तपः।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने-दिने॥ अर्थात् गृहस्थ को देवपूजा, गुरूभक्ति, स्वाध्याय के साथ संयम धारण करते हुए दान आदि षट्कर्मो को नित्य । प्रति करते रहना चाहिए।
यद्यपि श्रावकाचार का प्रतिपादन मात्र इतना ही नहीं है, अपितु काफी सूक्ष्मता और गहनता से मनोवैज्ञानिक पद्धति के आधार पर इसका विवेचन किया गया है। इसमें देश, काल आदि के अनुसार इसका विकास भी श्रावकाचार साहित्य में परिलक्षित होता है। विशेषकर पांच अणुव्रतों के अतिचारों के त्याग से तो इन व्रतों का व्यावहारिक रूप इतना अच्छा बनता है कि इससे विविध समस्याओं का समाधान अपने आप प्राप्त हो जाता है। श्रावकाचार के परिपालन से जिस जीवन शैली का विकास होता है, उससे उत्तरोत्तर जीवन के विकास की दिशा प्राप्त होती है, इसी विकास को जैन परम्परा में श्रावक की एकादश (ग्यारह) प्रतिमाओं में परिभाषित किया गया है। ये एकादश प्रतिमायें श्रावक के उत्तरोत्तर नैतिक एवं चारित्रिक विकास की परिचायक हैं। साथ ही ये श्रमण