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तिया कोवातायनास
के संयोग से जो जीव जन्म लेता है वह सम्पूर्च्छन जन्म कहलाता है। इन जीवों में मैथुन संज्ञा सर्वाधिक होती है। वे गर्भ धारण नहीं कर सकते हैं अतः नपुंसक होते हैं।
वनस्पतिकायिक जीवों में मूल, अग्र, पर्व, कन्द, स्कन्ध, बीज एवं सम्मूर्च्छिम प्रकार की वनस्पतियां होती हैं। ! विज्ञान के अनुसार इन सभी वनस्पतियों में बर्धी अलैंगिक प्रकार के जनन की क्षमता होती है वर्धी जनन में वनस्पतियों के कुछ प्रमुख भागों को जब अनुकूल वातावरण प्राप्त होता है तब वह अपने जैसा ही पौधा बना लेती हैं । इन भागों की एक छोटी सी कोशिका भी नया शरीर बनाने में सक्षम होती है। अतः उक्त प्रकार की बर्धी जनन की तुलना सम्मूर्च्छन जन्म से की जा सकती है। वनस्पति विज्ञान में पौधों अथवा पुष्पों में नर-मादा का
अंतर बताया गया है परन्तु बाह्य रूप से देखने में इनमें अंतर ज्ञात नहीं होता है, केवल पुष्पीय अवस्था (जो कि 1 अल्प समय की होती है) में ही यह अन्तर देखा जा सकता है। मनुष्यों एवं अन्य पंचेन्द्रियों की तरह पौधों में स्थायी ! जनन अंगों का अभाव होता है। अधिकांश वनस्पतियाँ कई प्रकार से प्रजनन करती हैं एवं उनके जीवन में हमेशा
संतति वृद्धि हेतु यह प्रक्रिया चलती ही रहती है। यह भी सम्मूर्च्छन जीवों में अधिक मैथुन संज्ञा का द्योतक है। जैन धर्म में कहा गया है कि जीव अपनी-अपनी योनियों में जाकर जन्म लेते हैं अर्थात् योनि जीवों का उत्पत्ति स्थान 1 है। चौरासी लाख योनियों के भेद भी बतलाये गये हैं। अतः ऐसा माना जा सकता है कि वनस्पतियों के जिस भाग
ये शरीर की संरचना बनती है वह जीव की उत्पत्ति अथवा योनिभूत स्थान है। क्योंकि वहाँ हवा, मिट्टी, पानी आदि के संयोग से अनुकूल योनि स्थान बनता है और जीव उसमें आकर जन्म लेता है।
इसी प्रकार गणित, खगोलशास्त्र आदि अनेक विषय हैं जहाँ जैनाचार्यों ने अद्भुत लेखन कर जगत को नये आयामों से परिचित कराया। एक बात अति महत्त्वपूर्ण है कि जहाँ विज्ञान नित नई घोषणायें करता है, अपने ही पूर्व सिद्धान्तों को नकार देता है वहीं जैन दर्शन में ऐसा कहीं देखने को नहीं मिलता है क्योंकि भगवंतों के दिव्य वचन कभी मिथ्या नहीं होते। वहाँ तो सर्वथा सत्य ही हैं। यहाँ इस बात को कहने का आशय यह भी नहीं है कि विज्ञान में मिथ्या ही होता रहता है। आवश्यकता इस बात की है धर्म क्षेत्र एवं विज्ञान क्षेत्र के विद्वान एक दूसरे के क्षेत्र की विशेषताओं एवं सिद्धान्तों को समझें एवं अध्ययन करें। तब निश्चित ही अनेक भ्रातियों का पटाक्षेप हो सकेगा।
संदर्भ ग्रन्थ सूची
1. जैनिज्म इन साइन्स । लेखक डॉ. एम. आर. गेलरा, जैनविश्व भारती इन्स्टीट्यूट, लाडनूं प्रकाशन, २००२ 2. आस्था और अन्वेषण, चतुर्थ जैन विज्ञान विचार संगोष्ठी, बीना, ज्ञानोदय विद्यापीठ प्रकाशन, भोपाल १९९९
3. जीवन क्या है ? लेखक डॉ. अनिल कुमार जैन मैत्री समूह प्रकाशन । २००२
4. जैनिज्म थ्रो साइन्स, लेखक मुनि श्री नन्दीघोष विजय जी, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई प्रकाशन. १९९५ 5. गोम्मटसार - जीव काण्ड, आचार्य नेमीचन्द्र, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ।
6. मूलाचार, आचार्य बट्टेकर, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली।