Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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आकर्षित
गानिकता
239 । जैन दर्शन में कषायों से युक्त मन, वचन एवं काय की क्रिया को लेश्या कहा गया है। षट् लेश्याओं में कृष्ण,
नील एवं कापोत अशुभ रूप हैं तथा पीत, पद्म व शुक्ल शुभ रूप हैं। तास्मानिया के जंगलों में पाया जाने वाला वृक्ष 'होरिजोन्टिल स्क्रब' की डालियां एवं जटायें मनुष्य के नजदीक आते ही इसके शरीर से लिपट जाती हैं, एवं तीव्र कषाय के कारण मनुष्य की मृत्यु तक हो जाती है। इस पौधों में कृष्ण लेश्या का उपयुक्त उदाहरण है। इसी प्रकार अनेक पौधों के कुछ अंग अत्यन्त भड़कीले एवं चटकदार होते हैं जिनसे आकृष्ट होकर छोटे-छोटे कीट उन
तक पहुंचते हैं एवं अन्दर फंसकर जान गंवा देते हैं। इन्हें नील लेश्या के अन्तर्गत रखा जा सकता है। अनेक पौधे । अत्यंत कांटेदार, दुर्घन्ध युक्त अथवा खुजली आदि उत्पन्न करते हैं इन्हें कापोत लेश्या युक्त कहा जा सकता है। __वनस्पतियों में कषायों की प्रधानता भी जैनधर्मानुसार देखी जा सकती है जैसे की गाजर, मूली, आलू, चुकन्दर आदि अपने शरीर में अत्याधिक भोज पदार्थो का संग्रहण कर लेते हैं जो कि लोभ का सूचक है। कीट भक्षी पौधों के कुछ अंग अति सुन्दर एवं चटकदार रंगों के होते हैं, जिनके वशीभूत होकर छोटे-छोटे कीट उनकी तरफ होते हैं एवं मर जाते हैं। यह माया का द्योतक है। इसी प्रकार अन्य अनेक उदाहरण कषायों के देखे जा सकते हैं। ___ आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह जैसी संज्ञाएं भी पौधों में पाई जाती हैं। आहार प्राप्त करने की अनेक विधियाँ पौधों में पाई जाती हैं। कुछ तो स्वयं भोजन का निर्माण करते है परन्तु अनेक ऐसे हैं जो परजीवी होते हैं। स्वच्छ से लेकर गंदे स्थानों में रहकर भी यह अपनी आहार संज्ञा की पूर्ति करते हैं। अनेक पौधे कांटेदार होते हैं अथवा दुर्गन्ध युक्त रसायन छू लेने पर छोड़ते हैं यह भय संज्ञा का प्रतीक है। अनेक विधियों से पौधों में मैथुन क्रिया भी होती है, एवं खाद्य सामग्री के रूप में परिग्रह भी इकट्ठा किया हुआ माना जा सकता है।
डॉ. जगदीशचन्द्र बसु के प्रयोगों ने काफी पूर्व ही वनस्पतियों में संवेदनशीलता को सिद्ध कर दिया है। भारतीय वैज्ञानिक डॉ. टी.एन. सिंह ने वनस्पतियों पर संगीत का स्पष्ट प्रभाव देखा। वेक्सटर नामक वैज्ञानिक | ने तो पौधों की संवेदनशीलता के बारे में यहाँ तक कहा है कि वह कमरे में जाला बुनने वाली मकड़ियों तक की ! गतिविधियों पर नजर रखते हैं।
भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही अध्यात्म और विज्ञान को एक दूसरे का पूरक माना गया है। यहां धर्म और विज्ञान का टकराव प्राचीन यूरोप की तरह नहीं हुआ। यूरोप में धर्म के नाम पर वैज्ञानिक विचारों की अभिव्यक्ति पर एक तरह से प्रतिबंध लगा हुआ था परन्तु अब वैज्ञानिक प्रगति के कारण वैचारिक स्वतंत्रता पर वहां कोई रोक नहीं है। विज्ञान के बारे में प्रचलित एक अन्य भ्रान्ति यह है कि जो पाश्चात्य एवं आधुनिक है वही वैज्ञानिक । दृष्टि से सही है।
सम्मूर्छन जीव :
जैन दर्शन में सम्पूर्छन जीवों की उत्पत्ति एवं जीवन से संबंधित विवरणों का अध्ययन करने पर लगता है कि हमारे आचार्यों का ज्ञान कितना सूक्ष्म एवं विस्तृत रहा होगा। जैन दर्शनानुसार चार इन्द्रिय तक के सभी जीवों तथा कुछ पंचेन्द्रिय जीवों का जन्म सम्पूर्छन विधि से होता है। यह भी अवधारणा है कि सभी सम्मूर्छन जीव नपुंसक ही होते हैं और इनमें नर-मादा का भेद स्पष्ट नहीं होता है। सम्मूर्छन जीवों के जन्म संबंधी तथ्यों को कुछ सीमा तक वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में सिद्ध किया जा सकता है। ऐसा माना जाता है कि वातावरण में पुद्गल परमाणुओं
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